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स्वप्नावस्था (तेजस) में जब आत्मा सूक्ष्म शरीर के साथ सम्पर्क स्थापित करता है तो इसे स्थूल संसार का कोई ज्ञान नहीं रहता किन्तु यह स्वप्न-जगत् के पदार्थों से लिप्त हो जाता है। इसलिए श्री गौड़पाद ने कहा है कि 'तेजस' में भी कारण तथा कार्य का अस्तित्व रहता है । इसे हम मन के भीतर का पदार्थमय-जगत कहते हैं ।
जब 'विश्व' तथा 'तेजस' दोनों में कारण और कार्य बने रहते हैं तो 'प्राज्ञ' इन दोनों से किस बात में भिन्न होगा ? यहाँ यह कहा गया है कि सुषुप्तावस्था (प्राज्ञ) में केवल 'कारण' रहता है। इस अवस्था में हमें नाना पदार्थों वाले स्थूल संसार तथा सूक्ष्म जगत् का कोई ज्ञान नहीं रहता । उस समय तो हम केवल इस वनीभूत नकारात्मक एकरूपता से परिचित रहते हैं जिसे "मैं नहीं जानता" भाव से स्पष्ट किया जाता है । यही भाव निरन्तर हममें बना रहता है । अतः जाग्रतावस्था में हमें केवल अज्ञान (अविद्या) का प्राभास होता है । यही अविद्या जगत् की माया और भ्रान्ति, अनेकता तथा नश्वरता की जननी है । इसलिए अविद्या वह कारण है जिससे नाना दृष्टपदार्थों (कार्य) का प्रादुर्भाव होता है।
यदि प्राचार्य का यह कथन सत्य है कि 'विश्व' तथा 'तेजस' में कारण और कार्य दोनों बने रहते हैं और 'प्राज्ञ' में केवल कारण मौजूद रहता है तो यह पूछा जा सकता है कि तुरीय (चतुर्थ) अवस्था का वास्तविक स्वरूप क्या है । इस मन्त्र में यह भाव संक्षेप में समझाया गया है। यहाँ स्पष्ट रूप से कहा गया है कि तुरीय (शाश्वत) में 'कारण' तथा 'कार्य' दोनों नहीं रह सकते । जहाँ तक खम्भे का सम्बन्ध है उसके अस्तित्व पर भयावने भूत के विविध अंग, वस्त्र, रूप यादि कोई प्रभाव नहीं डाल सकते ; खम्भे में तो भूत है ही नहीं।
खम्भे में भूत का पारोप करना एक मिथ्या भाव है और अवास्तविक पदार्थ (माया) का वास्तविक स्वरूप (आत्मा) पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता । यह कहा जा चुका है कि मरुस्थल की भ्रान्ति पूर्ण जल-धारा रेत
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