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अपनी इस माया-शक्ति के वश में होकर वह निज सहज-स्वभाव को भूल जाता है और इसके परिणामस्वरूप वह मिथ्या जगत में प्रवेश करके 'स्वप्न' में अनेक असत् अनुभवों को प्राप्त करता रहता है । स्वप्न देखते हुए उसे निश्चय होता है कि वह अमुक स्थान पर खड़ा हुप्रा अपने चारों ओर विशेष ढंग के प्राणी तथा पदार्थों का वातावरण पाता है। चाहे वह कैसी ही परिस्थिति में क्यों न हो उसके स्वप्न का प्रत्येक दृष्ट अंग उसके अपने व्यक्तित्व का ही विस्तृत रूप होता है । स्वप्न में दिखायी देने वाले जंगल के वृक्ष, भूमि पर पड़ी शिलाएँ, प्रवहमान नदी का जाल, मित्र, शत्रु, हिंस्र जन्तु–यहाँ तक कि आकाश, चन्द्रमा, तारे-ये सब स्वप्न-द्रष्टा के अपने मन का बृहद्-स्वरूप ही होते हैं।
जाग्रतावस्था में भी ऐसा अनुभव होता है । अपने वास्तविक स्वरूप का शान न होने से हम भ्रम-वश दृष्ट-संसार में प्रवेश करते हैं जो उस समय तक वास्तविक प्रतीत होता है जब तक हम इस (जाग्रत) अवस्था को अनुभव करते रहते हैं। वास्तव में बाह्य संसार के सभी पदार्थ इस सर्व-व्यापक यथार्थतत्त्व का ही रूप हैं । अद्वैत प्रात्मा में आरोप करने के कारण ही हमें अनेकत्व का अनुभव होता है।
__ प्रस्तुत मन्त्र में श्री गौड़पाद ने पहली बार हमारे जाग्रत संसार की व्याख्या की है । 'माण्डूक्योपनिषद्' अथवा कारिका में सामान्यतः इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है कि वास्तव में यह सृष्टि माया है जो तीन-काल में मिथ्या एवं अवास्तविक है। कभी कभी तो श्री गौड़पाद ने अपने उच्चस्तर से नीचे प्राकर हमारे दृष्ट-संसार की ओर संकेत करके हमें यह समझाने का अनुग्रह किया है कि इस (पदार्थ मय-संसार) को उत्पत्ति हमारी भ्रान्ति के कारण ही हुई है । ___हमारे साहित्य में इस मन्त्र की बड़ी ख्याति है और बहुधा इसका उल्लेख लेखक, वक्ता और न्यायाचार्यों द्वारा किया जाता है । . सृष्टि-सिद्धान्त के अनुसार अभी इस प्रश्न का उत्तर दिया जाना शष है कि "इस माया स्वरूप संसार का द्रष्टा, ज्ञाता तथा उपभोक्ता कौन
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