________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( १४७ )
बना देना है । इस परम-तत्त्व को अद्वैत कहना केवल यह संकेत देने के लिए है कि यह सर्व-शक्तिमान है। अद्वैतवाद का विचार करने पर इसे अद्वैत कहा जाता है; किन्तु जिस क्षण द्वैतभाव का मिथ्या होना सिद्ध होता है, उसी क्षण 'अद्वैत' शब्द का कोई महत्व नहीं रहता । 'अद्वैत' तथा 'अनेकता' दोनों का प्राधार यह यथार्थ तत्त्व है। इन दोनों को प्रकाशित करने वाली चेतना-शक्ति एक ही है और यही सनातन तथा पर्व व्यापक है ।
अपने भीतर इस परमात्मा की अन भति करने से सम्बन्धित अपनी यात्रा में हमें सर्व-प्रथम स्थूल संमार से अपना ध्यान हटाना होगा ताकि हम अपने वास्तविक स्वरूप को, जो एकमात्र अद्वैत तत्त्व है, पूर्ण रूप से जान सकें । इस तरह स्थल इंद्रियाँ तथा मन दोनों इस प्रयास में हमारे रत्ती भर सहायक नहीं हो सकते । इस ओर प्रयत्नशील रहते हुए जब हमारे मन का अस्तित्व नहीं रह पाता तब हमें सनातन-तत्त्व का अनुभव होने लगता है।
नाऽऽत्मभावेन नानेदं न स्वेनापिकथंचन ।
न पथङः नापथंकिंचित् इति तत्त्वविदो विदुः ॥३४॥ प्रात्मा की दृष्टि में इस द्वित्व भाव का कोई अस्तित्व नहीं होता और न ही इसकी कोई पृथक् सत्ता है । यह ब्रह्म से अलग नहीं और न ही यह अनेकता इससे भिन्न है-उपनिषद्-तत्त्व को जानने वाले विद्वानों का यह मत है ।
भ्रान्ति-पूर्ण एवं अवास्तविक सर्प की सत्ता रस्सी से पृथक सम्भव नहीं है। रस्सी को सर्प नहीं कहा जा सकता और न ही मर्प को रस्सी का नाम दिया जा सकता है । वस्तुतः वह 'सर्प' रस्सी है । इस प्रकार पदार्थमय संसार वास्तव में यह परम-तत्त्व है। इस पर भी संसार में कोई वास्तविकता नहीं मिलती और न ही यह सनातन तत्त्व संसार है । साथ ही यह अनेकतामय विश्व वास्तविक-स्वरूप के बिना कोई पथक अस्तित्व नहीं रखता।
यहाँ पदार्थमय संसार का एक सुन्दर शब्द (इदम्) द्वारा संकेत किया गया है । दृष्ट-संसार के लिए 'इदम्' (यह) शब्द का उपयोग करने का अभिप्राय यह है कि 'इसे' देखने पर हम पदार्थमय संसार से सम्बन्धित ज्ञान प्राप्त करते हैं।
For Private and Personal Use Only