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( १४५ )
जिस सिद्ध ने परम-ज्ञान को प्राप्त कर लिया है उसकी दृष्टि में जन्म-मरण, बन्धन आदि के लिए कोई महत्व नहीं है। ध्येय की प्राप्ति के बाद कोई वासना नहीं रह पाती और न ही मक्ति से प्राप्त होने वाली प्रात्म-तुष्टि का का कोई अंश शेष रहता है । ऐसे विरले व्यक्ति को जब मुक्तावस्था की अनभति हो जाती है तब उसके लिए पदार्थमय संसार और उसके शरीर, मन तथा बुद्धि की किसी माँग की पत्ति का कोई महत्व नहीं रहता । अत्मानुभूति से वह स्वयं प्रात्म-तत्व हो जाता है जिससे उसमें सर्व-व्यापक दिव्य-स्वरूप की सभी विशेषताएँ स्वतः आ जाती है ।
— 'जीवात्मा' को ही बन्धन-मुक्ति आदि की अनुभूति होती रहती है । एक उच्चात्मा में 'अहंकार' कभी ठहर नहीं पाता क्योंकि इसे प्रकट करने वाले उसके मन एवं बुद्धि के उपकरण अतीत को प्राप्त कर चुके होते हैं। जब तक किसी उपकरण को जीवन की चेतना-शक्ति स्पन्दित नहीं करती तब तक वह कोई चेष्टा नहीं कर सकता । आप बिजली के बल्ब को ही लीजिए। हम यह कह सकते हैं कि बल्ब बिजली को प्रकट करने का एक साधन है क्योंकि इसके द्वारा ही बिजली की रोशनी दिखाई देती है । ऐसे ही यह जीवनदायिनी शक्ति (आत्मा) जब मन एवं बुद्धि में प्रतिबिम्बित होती है तभी 'जीवात्मा' व्यक्त रूप में आ जाता है ।
बन्धन की भावना जीवात्मा में ही होती है और यही मुक्ति के भाव को अपनाता है । परम-तत्त्व की दृष्टि में हम सब आत्म-स्वरूप, सनातन तथा नित्य-मुक्त है । प्रात्मा किसी बन्धन में जकड़ा नहीं जा सकता जिससे इसको मुक्त करने का प्रश्न ही नहीं उठता । यह तो नित्य-मुक्त है ।
___ वैसे होता यह है कि भौतिक आवरणों द्वारा ढका रहने के कारण 'आत्मा' में पृथकत्व की भावना का संचार हो जाता है जिससे जीवात्मा अपनी मनोवृत्तियों तथा उनेक उपकरणों के द्वारा अपने-आप को परिमित एवं दुःखी देखने लगता है । यह मनोभावना ही जीवात्मा और उसके वास्तविक स्वरूप के बीच एक पर्दा ला खड़ा करती है जिससे यह मुग्ध मिथ्याभिमान, सान्त्वना एवं मुक्ति की कामना करने लगता है ।
इस समय तक सभी पाठक, जिन्हें कई युक्तियों द्वारा यह बताया जा चुका है कि दृष्ट-संसार के सभी पदार्थ 'आत्मा' में आरोपमात्र हैं, (जैसे रस्सी
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