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में सर्प) इस तथ्य को पूर्ण रूप से समझ चके होंगे। यहाँ यह शंका की जा सकती है कि यदि सब नाम-रूप अारोपमात्र हैं तो यह मल-तत्त्व ही अवास्तविक होगा। यह शंका करके ग्रालोचक ने वास्तविक एवं सर्वाधार सत्य को ही मिथ्या समझ लिया है । इस शंका समाधान करने के उद्देश्य से ही श्री गौड़पाद ने स्पष्ट-शब्दों में यह कह दिया है कि-"यही पूर्ण सत्य है ।"
__यह मूल-आधार मिथ्या, अस्पष्ट और काल्पनिक नहीं है क्योंकि यह तो हमारे मस्तिष्क की बड़ी से बड़ी उड़ान से परे है । सभी माधनों का ध्येय मनुष्य को उसकी कल्पना से मुक्त करना है । हमारे मन एवं बुद्धि में संकल्पविकल्प तथा विचारों की जो धारा प्रवाहित होती है, वह हमसे दिव्य-ज्योति को छिपाये रखती है । जिस कारण हम इस परम-तत्त्व को समझ नहीं पाते। मन और बुद्धि को लाँघ लेने पर कोई ऐगा साधन नहीं रहता जो हम में इन कल्पनामों की अग्नि को प्रज्ज्वलित कर सके । इसलिए कल्पना. मनोद्वेग, विचार तथा विविध आरोपों की धुध के दूर हो जाने पर हम ‘मत्य' का स्पष्टत: अनुभव कर सकते हैं।
भावैरसद्भिरेवायमद्वयेन च कल्पितः ।
भावा अप्यद्वयेनैव तस्मादद्वयता शिवा ॥३३॥ इस प्रात्मा की कल्पना मिथ्या दृष्ट पदार्थों में की जाती है और साथ ही अद्वैत में । अद्वैत-तत्त्व में इन पदार्थों की कल्पना की जाती है। इसलिए स्वभावत: अद्वैत-तत्त्व सर्व-श्रेष्ठ एवं कल्याणकारी है।
मरुस्थल में भटकने वाले यात्री को मृगतृष्णा द्वारा पीड़ित होते हुए कई दृष्य दिखाई देते हैं जैसे लहर, बबुद्, झाग आदि । वास्तव में ये सब कल्पनामात्र हैं। श्री गौड़पाद कहते हैं कि विविध दृष्ट-पदार्थों वाला यह संसार तथा परम-तत्त्व के अद्वैत होने से सम्बन्धित हमारी भावना कल्पनामात्र है।
परमात्मा में कोई विशेष गुण नहीं पाया जाता । इसके गुण एवं स्वभाव की परिभाषा करना वस्तुतः इसे सर्वोच्च स्तर से नीचे ले आना है । इसे शब्दों द्वारा वर्णन करना इसको सीमित, नाशमान तथा परिवर्तनशील
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