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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में सर्प) इस तथ्य को पूर्ण रूप से समझ चके होंगे। यहाँ यह शंका की जा सकती है कि यदि सब नाम-रूप अारोपमात्र हैं तो यह मल-तत्त्व ही अवास्तविक होगा। यह शंका करके ग्रालोचक ने वास्तविक एवं सर्वाधार सत्य को ही मिथ्या समझ लिया है । इस शंका समाधान करने के उद्देश्य से ही श्री गौड़पाद ने स्पष्ट-शब्दों में यह कह दिया है कि-"यही पूर्ण सत्य है ।" __यह मूल-आधार मिथ्या, अस्पष्ट और काल्पनिक नहीं है क्योंकि यह तो हमारे मस्तिष्क की बड़ी से बड़ी उड़ान से परे है । सभी माधनों का ध्येय मनुष्य को उसकी कल्पना से मुक्त करना है । हमारे मन एवं बुद्धि में संकल्पविकल्प तथा विचारों की जो धारा प्रवाहित होती है, वह हमसे दिव्य-ज्योति को छिपाये रखती है । जिस कारण हम इस परम-तत्त्व को समझ नहीं पाते। मन और बुद्धि को लाँघ लेने पर कोई ऐगा साधन नहीं रहता जो हम में इन कल्पनामों की अग्नि को प्रज्ज्वलित कर सके । इसलिए कल्पना. मनोद्वेग, विचार तथा विविध आरोपों की धुध के दूर हो जाने पर हम ‘मत्य' का स्पष्टत: अनुभव कर सकते हैं। भावैरसद्भिरेवायमद्वयेन च कल्पितः । भावा अप्यद्वयेनैव तस्मादद्वयता शिवा ॥३३॥ इस प्रात्मा की कल्पना मिथ्या दृष्ट पदार्थों में की जाती है और साथ ही अद्वैत में । अद्वैत-तत्त्व में इन पदार्थों की कल्पना की जाती है। इसलिए स्वभावत: अद्वैत-तत्त्व सर्व-श्रेष्ठ एवं कल्याणकारी है। मरुस्थल में भटकने वाले यात्री को मृगतृष्णा द्वारा पीड़ित होते हुए कई दृष्य दिखाई देते हैं जैसे लहर, बबुद्, झाग आदि । वास्तव में ये सब कल्पनामात्र हैं। श्री गौड़पाद कहते हैं कि विविध दृष्ट-पदार्थों वाला यह संसार तथा परम-तत्त्व के अद्वैत होने से सम्बन्धित हमारी भावना कल्पनामात्र है। परमात्मा में कोई विशेष गुण नहीं पाया जाता । इसके गुण एवं स्वभाव की परिभाषा करना वस्तुतः इसे सर्वोच्च स्तर से नीचे ले आना है । इसे शब्दों द्वारा वर्णन करना इसको सीमित, नाशमान तथा परिवर्तनशील For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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