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तस्मादेवं विदित्वेनं अद्वैते योजयेत्स्मृतिम् ।
अद्वैतं समनुप्राप्य जड़वल्लोकमाचरेत ॥३६॥ अतएव ऐसे गुण-स्वभाव वाले आत्मा को अनुभव कर लेने के बाद इससे एकरूपता स्थापित करो और इस अद्व त-तत्त्व की पूर्णानुभूति प्राप्त करके संसार में चेतनाहीन व्यक्ति की भाँति व्यवहार करो।
___'अतएव' शब्द से पता चलता है कि प्रस्तुत मंत्र पिछले मंत्र के क्रम में लिखा गया है और वही विचार यहाँ प्रकट किया जा रहा है । वेदों के ज्ञाता महान् ऋषियों ने नकारात्मकता पर विजय प्राप्त करने के बाद उस पूर्ण-स्थिति को अनुभव किया जहाँ उनकी मिथ्या कल्पनाओं का अस्तित्व नहीं रह पाया। अतएव यहाँ साधकों से आग्रह किया गया है कि वे आत्म-शुद्धि द्वारा शास्त्रों के विद्वत्ता-पूर्ण विचारों का निरन्तर मनन करें। विचार तथा साधन द्वारा इन उच्च भावों को भली भाँति समझ लेने पर साधक का व्यक्तित्व कल्पना, भय, राग अादि से बन्धन-मुक्त हो जाता है और उस समय उसे आत्म स्वरूप की अनुभूति होती है ।
ज्ञान-मार्ग पर चलने वालों के लिए इस मन्त्र में शास्त्रों के अध्ययन की महत्ता का निरूपण किया गया है। इसे अपनाने के लिए धर्म-विज्ञान से पूरा परिचित होना नितान्त आवश्यक है। श्री शंकराचार्य तथा अन्य सुविख्यात अद्वैतवादियों ने शास्त्रों के अध्ययन के महत्व पर विशेष बल दिया है और उनके विचार में ज्ञान-मार्ग पर चलने वालों के लिए शास्त्राध्ययन अनिवार्य है। सनातन-तत्त्व का अन्वेषण मुख्यतः शास्त्रों के पढ़ने से किया जाता है।
शास्त्र तथा तर्क द्वारा इस वास्तविक स्वरूप को समझ लेने पर हमें 'अद्वैत' पर ध्यान जमाना चाहिए । 'अद्वैत-ब्रह्म' के विषय में पर्याप्त मनन करने से हम नाम-रूप जगत की पृष्ठ-भूमि 'आत्म-शक्ति' से अधिकाधिक परिचित हो जायेंगे क्योंकि यह एकमात्र सनातन तथा परिपूर्ण तत्त्व है । जिस समय हमारी बुद्धि इस तथ्य को ग्रहण कर लेगी तब इस मन्त्र के अनुसार हमारा मानसिक एवं शारीरिक अस्तित्व हमारी विज्ञानमयी धारणा के अनुरूप हो जायेगा।
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