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( १४८ )
इससे पहले हम बता चुके हैं कि समस्त जगत को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है- द्रष्टा का जगत और दृष्ट-संसार । उपनिषद-द्रष्टा हमें बार बार बता चके हैं कि दृष्ट-पदार्थ केवल वास्तविक तत्त्व में आरोप है और यदि कोई वास्तविकता पायी जाती है तो वह केवल 'द्रष्टा' है । इस प्रकार 'यह' अथवा 'वह' कहे जाने वाले सभी पदार्थ निश्चय से दृष्ट-संसार के वर्ग के होंगे।
इस से यह न समझ लिया जाय कि केवल दूरस्थ पर्वत-शृंखलाएँ, वृक्ष, मनुष्य तथा ठोस पदार्थ अवास्तविक है बल्कि 'यह' शरीर, 'यह' भाव (यहां तक कि 'यह' अविद्या) सभी दृष्ट-संसार से सम्बन्ध रखते है । इस पर हम सहसा यह सोचने लगेंगे कि 'आत्मा' के निकटतर होने के कारण हमारा शरीर, मन और बद्धि संसार के स्थल पदार्थों की अपेक्षा वास्तविक है, किन्तु जो सच्चा साधक निरन्तर परिश्रम करते हुए 'आत्मा' से साक्षात्कार करना चाहता है उसकी दृष्टि में मन एवं बुद्धि मिथ्या तथा त्याजनीय हैं क्योंकि परमतत्त्व के स्तर से दृषट-संसार को देखने पर उसे सर्वत्र इस परमात्मा का अनुभव होता रहता है।
__ इस उक्ति का यह अभिप्राय नहीं कि इस तथ्य को सुनकर हम इसे तुरन्त मान लें। श्री गौड़पाद इस बात से भली भांति परिचित हैं कि हमारे मनोवैज्ञानिक व्यक्तित्व पर द्वैतभाव की इतनी गहरी छाप पड़ी हई है (क्योंकि हम मन तथा बुद्धि के उपकरणों द्वारा विविध अनुभव प्राप्त करते रहते हैं) कि हम सर्व-व्यापक तथा नित्य 'अद्वैत तत्त्व' को आसानी से समझ नहीं पाते। ___ इसलिए ऋषि कहते हैं कि इस परम-सत्ता में पदार्षमय दृष्ट-संसार का अस्तित्व नहीं है । इस कारण संसार के सभी महान्-द्रष्टाओं ने प्राग्रह-पूर्ण शब्दों में कहा है कि परिपूर्णता की इस स्थिति को प्राप्त करना संभव है। यहाँ हमें इस बात को समझ लेना चाहिए कि प्रात्मानुभूति में सुदृढ़ रहने पर भी श्री गौड़ पाद जैसे महानाचार्य ने निज व्यक्तिगत अनुभव की ओर तनिकमात्र संकेत नहीं दिया । इन्होंने तो धर्म-ग्रन्थों के महान् तत्त्व-वेत्ताओं के विचारों का उल्लेख करते हुए इतना कहना पर्याप्त समझा कि-"यह विाद्वनों का मत है।"
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