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( १४३ ) प्राकार और रंग के दृश्य दिखायी पड़ते हैं । कहीं (हम बादलों से बनी) इन्द्रजाल की नगरी देखते हैं जिसमें अनेक वस्तुओं से भरी दूकानें, मकान, महल, ग्राम, स्त्री-पुरुष आदि दृष्टिगोचर होते हैं । इन दृश्यों को गन्धर्व नगरी कहते हैं । यह क्रिया वस्तुतः हवाई क़िले बनाने के समान है। यद्यपि ये सब हमारी कल्पना-शक्ति की उपज हैं तो भी इन दृश्यों की वास्तविकता कुछ समय तक भासमान होती रहती है क्योंकि केवल भ्रान्ति के कारण हम इन्हें देख पाते हैं।
उपनिषद्-साहित्य में जिस सनातन-तत्त्व का निरूपण किया गया है उस को अनुभव करने वाले सिद्ध पुरुषों ने यह निष्कर्ष निकाला है । अपने शरीर, मन और बुद्धि का अतिक्रमण करके उन्हों ने 'अत्मा ' को सम्पूर्ण चेतनातत्त्व में पाया और अपने नये उच्च स्तर से जब उन्हों ने संसार पर दृष्टिपात किया तब उन्हें संसार एक-रस (अर्थात् अभिन्न) दीख पड़ा। इस परिस्थिति में उपनिषद्-द्रष्टाओं एवं महर्षियों ने एक स्वर से घोषणा की है कि पदार्थसंसार की कोई सत्ता नहीं । काया, मन तथा बुद्धि द्वारा स्थूल संसार को देखते रहने से हमें यह वास्तविक दिखाई देता है ।
__यहाँ टीकाकार ने वास्तविक प्रतीत होने वाले नाम-रूप की व्याख्या की है । ऋषि कहते हैं कि वस्तुप्रों को देखने मात्र से संसार की यथार्थता का भान नहीं हो सकता । इस दिशा में प्रयत्नशील रहते हुए व्यक्ति जिस निष्कर्ष पर पहुँच पाते हैं वह यह है कि स्थूल संसार वास्तविक-तत्त्व में प्रारोपमात्र है और यह उस क्षण दृष्टिगोचर होता है जब हम उसको मन और बुद्धि के विकृत उपकरणों से देखते हैं।
न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः ।
न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता ॥३२॥
सृष्टि-प्रलय, बन्धन-मुक्ति, साधन-सिद्धि-इन सब का कोई अस्तित्व नहीं है । यदि किसी का अस्तित्व है तो वह परम-तत्त्व ही है ।
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