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( १४१ ) एतैरेष ऽवृथाभावः पृथगेवेति लक्षितः ।
एवं यो वेद तत्त्वेन कल्पयेत्सोऽविशङ्कितः ॥३०॥ इन सब से पृथक् न होने पर भी प्रात्मा स्पष्ट रूप से पृथक् दिखायी देती है । जो इस तत्त्व को जान लेता है वह किसी शंका के बिना 'वेद' के भावार्थ को स्पष्ट कर सकता है ।
इस मंत्र में श्री गौड़पद द्वैतवादियों और उनके सिद्धान्तों के प्रति उदारता का प्रदर्शन करते है । उपनिषद् एक स्तर से अद्वितीय तथा सनातन दिव्य तत्व की सत्ता का पुष्टिकरण करते हैं । इसे अनुभव करने वाले प्राचार्यों ने समय-समय पर संसार में आ कर अपने अनुभवों का रहस्योद्घाटन किया तथा इस सनातन-तत्त्व की असीम सत्ता की पुष्टि की है ।
यदि यह तथ्य मान लिया जाय तो असंख्य अद्वैतवादियों के इस तर्क को कसे स्वीकार किया जा सकता है कि 'आत्म तत्व' विभिन्नता धारण किये हुए है । इस शंका का समाधान करने के उद्देश्य से श्री गौड़पाद ने कहा है कि पदार्थमय संसार से अभिन्न रहने पर भी 'आत्मा' इनसे पृथक् दिखायी देता है । 'प्राण' आदि इससे अलग न होने पर भी अलग प्रतीत होते हैं । रस्सी के सर्प का अस्तित्व उस (रस्सी) से अलग नहीं है, तो भी हमारी भ्रांति में इस का पृथकत्व दिखाई देता है।
जिस सिद्ध पुरुष नं इस तथ्य को जान लिया है कि केवल 'आत्मा' की सत्ता की सर्वत्र अनुभूति होती है वह महान्-द्रष्टा 'वेदों' को व्याख्या करने तथा इनकी यथार्थता को चरितार्थ करने की शक्ति रखता है । जो व्यक्ति केवल बुद्धि-चातुर्य से 'वेदों' को समझने का प्रयास करते हैं उन्हें वास्तविक सत्य का ज्ञानमात्र होता है न कि अनुभूति । अनुभव प्राप्त करने वाले तत्त्व-वेत्ताओं की भाँति ये मनुष्य उपनिषदों के सन्देश का प्रात्म-विश्वास से प्रसार करने में असमर्थ होते हैं। इसलिये ऋषि ने कहा है कि केवल वे सौभाग्य-शाली अद्वैत प्रात्म-द्रष्टा वेदों के उपनिषद् भाग को विश्वास, दृढ़ता तथा स्पष्टता से समझा और दूसरों को उसका अनुभव करा सकते हैं।
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