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( १४० ) आरोप कर बठते और अपने मिथ्या भाव के पक्ष में अनेक युक्तियाँ देने का आग्रह करते हैं । सड़क के किनारे पान वाली दूकान में लगा हुआ बड़ा दर्पण किसी वस्तु का प्रतिबिम्ब दिखाने में मनमाने ढंग को नहीं अपना सकता । जो उसके सामने आता है उसका प्रतिबिम्ब उसमें सहसा दीख पड़ता है, चाहे वह कोई ग्राहक हो अथवा सामने से जाने वाली मोटर गाड़ी, रिक्शा, बाइसिकल अथवा कोई और वस्तु । उसमे सामने खड़ी हुई भैंस इतनी ही स्पष्ट दिखाई देगी जितना कोई गधा । इस प्रकार 'सत्य' आधारभूत है अंर, मन चाहे किसी अोर बहिर्मुख हो, सत्य का प्राभास हे ना अवश्यम्भावी है ।
इसके विपरीत यदि हम अपने मन के अस्तित्व को मिटा कर इस वास्तविक तत्त्व को अनुभव करने में सफल हो सके तो हमें इम सत्य-सनातन की वास्तविक झलक दिखाई देगी। यदि हमारा शुद्ध तथा एकाग्र मन उस परमात्म-तत्त्व को जानने में प्रयत्नशील रहे, जो सब नाम-रूप में व्याप्त है, तो हम इस अनादि तत्त्व से साक्षात्कार कर सकते हैं । स्थूल पदार्थों से विरक्त रह कर हम शनैः शनैः इस अनुभूति में सुदृढ़ हो जाते हैं । इस साक्षात्कार के लिए मन किसी प्रकार सहायक नहीं होता जिस कारण कोई मानसिक वासना इस 'सत्य' को विकृत तथा इसे वर्णन नहीं कर पाती।
वेदान्त के द्वारा अपनायी गयी इस विधि के द्वारा यह अनुभव निश्चित् रूप से प्राप्त हो जाता है । इस अनुभूति का अर्थ है सर्प, छड़ी, जल-रेखा
और फटी भूमि के मिथ्या आभास में रस्सी का दर्शन करना । ये विविध नामरूप केवल रस्सी के वास्तविक स्वरूप पर आरोपमात्र हैं । जब हम रस्सी को पहचान लेते हैं तब उससे सम्बन्धित सभी मिथ्या भावनाएँ तुरन्त दूर हो जाती है। ऐसे ही मन तथा बुद्धि का अतिक्रमण करने पर हमें 'सत्य' को अनुभूति होती है । इस कारण सभी युगों के महान् विचारज्ञों ने इस अनादितत्त्व से सम्बन्धित वेदान्त के सिद्धान्त के अनुभव की व्याख्या की है जिस में संसार के विविध पदार्थों का लेशमात्र महत्त्व नहीं रह पाता। विश्व की इस पहेली को हल करने का एकमात्र उपाय आत्मानुभूति है।
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