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( १३८ )
सृष्टिरिति सृष्टिविदो लय इति च तहिदः, स्थितिरिति स्थितिविदः सर्वे चेह तु सर्वदा ||२८|| सृष्टिवेत्ता इस को 'सृष्टि' कहते हैं और लय में श्रद्धा रखने वाले इसे 'लय' कहते हैं । ( विश्व की ) स्थिति को मानने वाले इसे 'स्थिति' कहते हैं । वास्तव में ये सब विचार 'आत्मा' के कल्पित नाम है ।
इस अंतिम मंत्र में श्री गौड़पद ने अपने समय में प्रचलित सिद्धान्तों की व्याख्या को समाप्त कर दिया है । पुराण मत के अनुयायी तीन दलों में विभक्त किये गये हैं । कुछ तो यह विश्वास करते हैं कि इस संसार की प्रति-क्षण सृष्टि होती रहती है; दूसरे इसे निरन्तर लीन होते देखते हैं और तीसरी विचारधारा वाले संसार की स्थिति में हो आस्था रखते हैं । इस तरह ये पौराणिक परम-तत्त्व को संसार की सृष्टि, स्थिति और लय में देखते हैं ।
यं भावं दर्शयेद्यस्य तं भावं स तु पश्यति ।
तं चावति स भूत्वाऽसौ तद्ग्रहः समुपैतितम् ॥२६॥
साधक केवल उस भाव को अनुभव करता है जिसे उसके गुरु ने उस समझाया है । उस अनुभव पदार्थ का स्वरूप 'आत्मा' द्वारा धारण किया जाता है जिससे उस ( साधक ) की रक्षा होती है । उस भाव के उपकरण से ही वह ( साधक) एकमात्र सत्य को अनुभव कर लेता है ।
सृष्टि के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या करने के बाद अब श्री गौड़पाद इन सब को निरर्थक सिद्ध करते हैं । यहाँ एक ही विद्वत्तापूर्ण भाव से उन सब सिद्धान्तों को, जो आत्मा के गुण, स्वभाव, विशेषण आदि पर आरोपमात्र हैं, एकदम रद्द कर देते हैं । ऋषि की राय में इन सिद्धान्तों के मानने वाले द्वतवादी, जो परस्पर वाद-विवाद में व्यस्त रहते हैं, एक मिथ्या श्राध्यात्मिक प्रवृत्ति का शिकार हो रहे हैं ।
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