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का मानते हैं और चौथी विचारधारा वाले इसे अनन्त
मानते हैं ।
श्री गौड़पाद ने इन वर्गों को एकत्र करके और साथ ही इनकी विचारधाराओं को समझाने के लिए 'गणित' को ओर संकेत करके इन पर आक्षेप किया है ।
सांख्यकी कहते हैं कि परमात्म-तत्त्व का निर्माण २५ विविध तत्त्वों के मिलने से हुआ है । उनके विचार में मूल प्रकृति में विकृति आने पर 'महत्', 'अहंकार' और '५ तन्मात्राएँ' बन जाती हैं । इन्हें प्रकृति की विकृति कहते हैं । इनमें से प्रत्येक में फिर परिवर्तन (विकार) होता है, जैसे 'महत' का ५ ज्ञानेन्द्रियों, 'अहंकार' का ५ कर्मेन्द्रियों, पञ्च तन्मात्राओं का ५ विषय-पदार्थो और पञ्च तन्मात्राओं का सूक्ष्मतम सत्त्व, जिसे 'मन' कहते हैं, में परिवर्तन होता है । कुल मिला कर ये १६ विकार हुए ।
इस तरह सांख्य-मत वालों के अनुसार मूल प्रकृति, सात विकृतियाँ, सोलह विकार और 'पुरुष' (२५ तत्त्व ) दृष्ट-संसार के मूल तत्त्व है जिनके योगफल को 'परमात्मा' कहते हैं ।
वे योगी, जिनका प्रतिनिधित्व मुनि पातञ्जलि करते हैं, इन २५ तत्त्वों में 'ईश्वर-तत्त्व' को मिलाकर २६ तत्त्वों के योग को वास्तविक तत्त्व मानते हैं ।
एक और विचारधारा वाले, जिन्हें 'पाशुपत' कहते हैं, ३१ तत्त्वों को मिला कर 'आत्मा' का रूप देते हैं । जब हम इनके ग्रन्थों का गहन अध्ययन करते हैं तब हमें कुल मिला कर ३६ तत्त्वों का पता चलता है । ये हैं(१) शिव, (२) सुख, (३) सदाशिव, (४) ईश्वर (५) विद्या, (६) पुरुष, (७) माया, (८) काल, (६) नियति, (१०) कला, (११) अविद्या, (१२) राग, (१३) अव्यक्त प्रकृति, (१४) महत, (१५) अहंकार, (१६) मनस्, (१७) से (२१) पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, (२२) से (२६) पाँच कर्मेन्द्रियाँ, (२७) से (३१) पाँच तन्मात्राएँ और (३२) से ( ३६ ) पंच तत्व | यहाँ श्री गौड़पाद ने ३१ तत्वों
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