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( १३५ )
प्रस्तुत मंत्र में तीन विचारधाराओं की ओर संकेत किया गया है। इन्हें हम 'भौतिक' कह सकते हैं । इनमें यदि कोई भेद है तो केवल यह कि ये अपने अपने विचार के अनुसार परमात्मा को अन्तःकरण के एक न एक उपकरण का रूप देते हैं । एक श्रेणी वाले 'संकल्प-प्रधान मन' को महत्व देते हैं, दूसरे 'निश्चय-प्रधान मन' को यथार्थ मानते हैं और तीसरे मन के प्रकाशमान गुण में विश्वास रख कर 'चित्-प्रधान मन' को प्रमुख स्थान देते हैं।
जिस किसी ने चेतना-शक्ति ( जीवन ) से हीन 'जड़' तथा 'चेतन' पदार्थों को देख लिया है वे कभी इन विचार-धाराओं से सहमत नहीं होंगे।
इस मंत्र में एक ऐसे सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है जिसे सामान्यतः मीमांसकों ने अपनाया है । वे सृष्टि का मूल कारण धर्म (पुण्य) तथा अधर्म (पाप) मानते हैं । इनकी यह धारणा है कि संसार की सृष्टि, स्थिति तथा इति हमारे पूर्व-कर्मों के द्वारा नियमित, नियंत्रित तथा शासित रहती है और इस समय किये जाने वाले हमारे 'पुण्य' तथा 'पाप' भविष्य के संसार का निर्माण करेंगे।
हम यह जानते हैं कि 'धर्म' और 'अधर्म' की सत्ता पारस्परिक है। एक के बिना दूसरे का बना रहना असम्भव है। इस तरह इनकी स्थिति पारस्परिक विषमता पर निर्भर है; अतः इन दोनों को सनातन-तत्त्व नहीं कहा जा सकता। एकही देश पर राज्य करने वाले दो राजाओं को राजा की उपाधि नहीं दी जा सकती क्योंकि ये दोनों एक दूसरे की राज्य सीमा का अतिक्रमण करेंगे।
पञ्चविंशक इत्येके षड्विंशः इति चापरे ।
एकत्रिशक इत्याहुरनन्त इति चापरे ॥२६॥ कई कहते हैं कि यह 'वास्तविक-तत्त्व' २१ प्रकार का है; दूसरे इसे २६ प्रकार का मानते हैं; तीसरे इसको ३१ प्रकार
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