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बौद्धों में निहिल' कहे जाने वालों ने यह घोषणा की है कि 'आत्मा' वस्तुतः शून्य है । उनके मतानुसार यह 'असत्' है किन्तु इसमें से विविध नामरूप प्रकट हुए हैं।
काल इति कालविदो दिश इति च तद्विदः ।
वादा इति वादविदो भुवनानीति तद्विदः ॥२४॥ कालवत्ता इसको 'काल' कहते हैं और दिक्-वेत्ता इसे 'दिशा' कहते हैं। वाद-विद्या विशारद इसे 'वाद' मानते हैं तथा भुवनों (लोको) को जानन वाले इस तत्त्व को 'भुवन' कहते हैं।
ज्योतिष तथा खगोल के विद्वान् 'आत्मा' अर्थात् 'काल' को संसार का स्रष्टा, पालनकर्ता तथा संहत्ता मानते हैं; अतः वे 'काल' को ही सत्य-सत्त्व स्वीकार करते हैं । इनके इस सिद्धान्त को रद्द करना कठिन बात नहीं है क्योंकि हम सभी रात-दिन अनुभव करते है कि 'काल' अर्थात् समय परिवर्तनशोल है। जो स्वयं बदलने वाला हो भला वह शाश्वत तथा अपरिवर्तनशील (आत्मा) को किस प्रकार उत्पन्न करेगा ?
__एक और विचार-धारा वाले, जिन्हें 'स्वरोदयवादी' कहा जाता है और जो पशु-पक्षियों को वाणी को सुनकर वर्तमान तथा भविष्य का अनुमान लगाने में कुशल हैं, इस सर्व-सत्ता को 'दश।' पर अवलम्बित समझते हैं। ये व्यक्ति जिस दिशा से ये स्वर सुनायी देता है उस ओर जाकर विशेष अनुमान करते तथा असाधारण ज्ञान प्राप्त करते हैं।
कई अनुवादकर्ताओं ने इस शब्द (वाद) का जो अर्थ किया है वह विवादास्पद है । जब हम इसे एक वैज्ञानिक की दृष्टि से देखते हैं तो किसी विवाद के लिए स्थान नहीं रहता। यहाँ 'वाद' शब्द का पारिभाषिक अर्थ किया गया है । श्री आनन्दगिरि ने इसका अर्थ 'धातुवादी', 'मन्त्रवादी' आदि को विद्या किया है । स्फटिक-मणि (Crystals), मंत्र, जड़ी-बूटी आदि को सहायता से ये कौतुक-विद्या का प्रदर्शन करते हैं । इनकी विद्या को वाद कहा जाता है । इस नश्वर पदार्थमय सृष्टि में इन्हें अपनी विद्या में ही 'आत्मा' का दर्शन होता है ।
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