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( १३१ ) रूप रस, गन्ध और स्पर्श से ही बना है । - पौराणिकों की दृष्टि में इस परम-सत्ता का अस्तित्व 'भूः', 'भुवः' और 'स्व:' नाम के तीन लोकों में है । ___मीमांसिक, जो वेदों के यज्ञ-भाग (कर्म-काण्ड) में विश्वास रखते हैं, इस सनातन-सत्य को अग्नि, इन्द्र आदि देवताओं के स्वरूप में देखते है । वे इन देवों को इसलिए सत्तावान मानते हैं क्योंकि ये कर्म-फल दाता है।
वेदा इति वेदविदो यज्ञा इति च तद्विदः ।
भोक्तेति च भोक्तृविदो भोज्यमिति च तद्विवः ॥२२॥ वेदों के ज्ञाता इस (आत्मा) को वेदों में देखत है; यज्ञ करने वाले इसे पवित्र यज्ञों में मानते हैं; भोक्ता इसको 'भोक्ता' कहते हैं और भोज्य पदार्थ को जानने वाले इसे भोज्य (पदार्थों) में विद्यमान पाते हैं ।।
इस प्रसंग को जारी रखते हुए श्री गौड़पाद यहाँ चार अन्य सिद्धान्तों की ओर संकेत करते हैं । वेदों के ज्ञाता तो यह विश्वास रखते हैं कि 'वेद' ही इस परम-सत्य के मूल-प्राधार है। बोधायन तथा अन्य प्रकाण्ड विद्वान इस 'सत्ता' को यज्ञों में मानते हैं । उनका यह मत है कि वर्तमान संसार तथा इसके विविध प्राणी, पदार्थ आदि की सृष्टि का कारण वे पवित्र यज्ञ हैं जो पहले-पहल वेद-विधि के अनुसार सत्य भावना तथा श्रद्धा से किये गये । दार्शनिक विचार से यह ठीक नहीं हो सकता क्योंकि सनातन-तत्व, जो असीम शक्ति है, का निर्माण ऐसे यज्ञों के द्वारा नहीं किया जा सकता जिनके ये तीन अंग होते हैं -आहुति, आवाहन पर आने वाले देवता और यजमान । इससे यह बताने का यत्न किया जा रहा है कि परिमित (सत्ता) की प्राप्ति करना एक असम्भव बात है।
सांख्यकी परमात्मा की 'भोक्ता' में धारणा करते हैं । उनका यह विश्वास है कि 'प्रात्मा' कर्ता अथवा अभिकर्ता नहीं बल्कि 'भोक्ता' है ।
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