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( १३४ ) 'भुवनरोशवादी' अर्थात् भौगोलिक कहते हैं कि यह परम-तत्त्व वास्तव में १४ लोकों का ही स्वरूप है । इन १४ लोकों का पुराणों में उल्लेख किया गया है।
मन इति मनोविदो बुद्धिरिति च तद्विदः ।
चित्तमिति चित्तविदो धर्माधमौ च तद्विदः ॥२५॥ मन की सत्ता में दृढ़ विश्वास रखने वाले इसे 'मन' कहते हैं और 'बुद्धि' को मानने वाले इस को 'बुद्धि' कहते हैं । मन की 'चित्' वृत्ति को मानने वाले इसे 'चित्' तथा धर्म एवं अधर्म में आस्था रखन वाले इसको 'धर्म' और 'अधर्म' कहते हैं ।
इस मंत्र में श्री गौड़पाद द्वारा उनके समय में प्रचलित सिद्धान्तों में से हमें चार और सिद्धान्त बताये गये है।
अज्ञान में परिभ्रमण करने वाले मन के इस प्रकार के विकार तथा भ्रम वस्तुतः हास्यास्पद है।
भौतिकवादियों के विचार में संसार भर में अस्तित्व मन का ही है क्योंकि इस (मन) के न होने पर हम इस संसार के भिन्न अनुभव कभी प्राप्त न कर पाते । एक और विचार-धारा वाले, जिनमें अधिक संख्या बौद्धों की है, कहते है कि आत्मा यदि कहीं है तो वह बुद्धि है । उन्हें इस बात का ध्यान नहीं रहता कि सुषुप्तावस्था में मन तथा बुद्धि का अभाव होता है । इसका यह अभिप्राय हुआ कि इस परम-सत्ता (मन और बुद्धि) का सुषुप्तावस्था में अस्तित्व नहीं रहता।
बौद्धों में एक सम्प्रदाय योगचरों' का ह जो 'चित्' को परमात्मा मानते हैं। उनका यह कहना है कि चाहे 'मन' विविध पदार्थों को कितना जान ले और 'बुद्धि' इनमें विवेक का कितना उपयोग करे तो भी हमें उस समय तक कोई अनुभव प्राप्त नहीं हो सकता जब तक इन्हें प्रकाशमान करने वाला तत्त्व 'चित्' इन दोनों की सहायता न करे ।
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