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( १३७ )
का वर्णन किया है । सम्भव है उन्होंने उपरोक्त पांच तत्वों (काल, नियति, कला, अविद्या और राग ) की, जो माया के अन्तर्गत माने जाते हैं. अलग गणना न की हो और केवल 'माया' का उल्लेख करना पर्याप्त समझा हो ।
कुछ व्यक्ति कहते हैं कि असंख्य तत्त्व मिल कर इस परम सत्ता को प्रकट करते हैं ।
लोकाँल्लोकविदः प्राहुराश्रमा इति तद्विदः । स्त्रीपु नपुंसक लिंगाः परापरमथापरे ॥२७॥
लौकिक, जो दूसरों को प्रसन्न करना जानते हैं. इस (परमतत्त्व ) को लोक (संसार) को प्रसन्न करने की क्रिया कहते हैं ; जो ग्राश्रम-धर्म का पूर्ण रूप से पालन करते है, वे 'आश्रम' मानत हैं । वयाकरणों की धारणा है कि यह पुलिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिङ्ग हो है और दूसरे इस को 'पर' तथा 'अपर' कहते हैं ।
समाज-सेवा तथा राष्ट्र के हितों की चिन्ता में रत रह और अपनी पूरी शक्ति लगा कर संसार को समृद्धिशाली बनाने वाले 'लौकिक' कल्याणकारी पर सेवा को ही 'परमात्मा' मानते हैं ।
राजा दक्ष प्रभृति पुराण-काल के विद्वान् कहते हैं कि अपने-अपने प्राश्रम में रह कर सभी ग्राश्रम धर्मों का विधि पूर्वक पालन करना ही 'सनातन-तत्त्व ' का रूप है और इस पदार्थमय जगत् में इसी साधन को अपनाना श्रेयस्कर है ।
व्याकरणाचार्यो की दृष्टि में यह महान् शक्ति पुलिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग में विद्यमान् है ।
एक और विचारधारा वाले, जो वेदान्त मत वालों में पाये जाते हैं, यह विश्वास करते हैं कि सर्वशक्तिमान् के दो रूप हैं जिन्हें हम 'पर' श्रीर 'अपर' ब्रह्म कहते हैं ।
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