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( १२६ ) अध्ययन करते आये हैं ताकि वे जीवन के उद्देश्य का यथार्थ रूप से निर्णय कर सके।
प्राण इति प्रागविदो भूतानोति च तद्विदः ।
गुण इति गुणविदोस्तत्वानीति च तद्विदः ॥२०॥ प्राण को जानने वाले प्रात्मा को 'प्राण' कहते हैं । भूतों को जानने वाले इसे 'भूत' कहते हैं । जो व्यक्ति गुणों से परिचित हैं वे आत्मा को 'गुण' कहते हैं और तत्व-विद् इसको 'तत्त्व' का नाम देते हैं।
जैसा गत मन्त्र में कहा गया है, अब श्री गौड़पाद 'वास्तविक-तत्त्व' से सम्बन्धित अनेक विचारों तथा अद्वैतवादियों द्वारा प्रतिपादित विभिन्न सृष्टिसिद्धान्तों पर प्रकाश डालते हैं। इस समय दृष्ट-संसार से सम्बन्ध रखने वाले ३५ विविध सिद्धान्तों का उल्लेख किया जा रहा है।
वैशेषिक मत के अनुयायी समूचे संसार के विविध नाम-रूप का आधार 'प्राण' को मानते हैं । यहाँ प्राण का अर्थ वह वायु नहीं जो हम दिन-रात अपने भीतर खेचते तथा बाहिर फेंकते रहते हैं और जिस श्वास-क्रिया के द्वारा हम जोवित हैं । इस शब्द का यहाँ दार्शनिक विचार से प्रयोग किया गया है । इसका अर्थ है सामूहिक मन अर्थात् हिरण्यगर्भ (स्रष्टा), जिसे वेदान्त द्वारा 'सूत्रात्मा कहा गया है।
कुछ व्यक्ति हिरण्यगर्भ में इतनी अधिक आस्था रखते हैं कि वे उसकी 'परमात्मा' के रूप में अर्चना करने लगते ह । इन मनुष्यों को हिन्दु-दर्शन में 'हिरण्यगर्भ' कहा जाता है। ____ श्री गौड़पाद ने यहाँ हर मन्त्र में चार विभिन्न सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला है इस तरह प्रति पंक्ति में दो सिद्धान्तों को प्रोर संकेत किया गया है अथवा हर पंक्ति के पद में एक सिद्धान्त बताया गया है।
प्रस्तुत मन्त्र की पहली पंक्ति के दूसरे 'पद' में चारवाक सिद्धान्त का वर्णन किया गया है जो सृष्टि के अनेकत्व का मूल-प्राधार है। इसके अनु
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