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( १२७ ) यह भ्र न्ति उत्पन्न होती रहती है ।
अद्वैतवादियों को छोड़ कर भारत के सभी धर्म-ग्रन्थ और दर्शनाचार्य बाह्य पदार्थमय संसार की वास्तविकता में विश्वास रखते हैं और इस कारण वे हमें यह बताते हैं कि इस (संसार) की उत्पत्ति किस प्रकार और क्यों हुई।
___ इस तरह हम देखते हैं कि कोई दार्शनिक कृति उस समय तक पूर्ण नहीं मानी जाती जब तक उसमें सृष्टि, अनुभव तथा प्राप्ति के उपायों से सम्बन्धित सिद्धान्तों का प्रतिपादन न किया गया हो । यहाँ सृष्टि-सम्बन्धी विचारों को एक-एक कर के लिया गया है जिससे हम विविध विचार-धाराओं और उन के विभिन्न साधनों को भली-भाँति समझ सकें । इन सबका यहाँ इस उद्देश्य से संकलन किया गया है कि हम इनकी अनुपादेयता को जान कर इन्हें त्याज्य मान लें । वास्तविक-सत्ता के दृष्टिकोण से सृष्टि-सिद्धान्त अमान्य है।
अद्वैतवादियों का मत है कि 'आत्मा' ही अनेक नाम-रूप उपाधियाँ ग्रहण करता है, जैसे 'प्राण', 'पुरुष' इत्यादि । एक विचार धारा के अनुसार इस (आत्मा) का क्रियमाण पक्ष 'प्राण' है जो संसार के सभी जड़ पदार्थों को चेतना प्रदान करता है; जब कि पूर्ण-स्वरूप 'पुरुष' (आत्मा) द्वारा चेतनायुक्त प्राणियों की सृष्टि की जाती है । इस प्रकार द्वैतवादियों ने प्रात्मा के वास्तविक स्वरूप के विषय में सहस्रों कल्पनाएँ की है। इसके विपरं त वेदान्ती यह कहते हैं कि पदार्थमय सृष्टि केवल भासमान होती है जब कि हम आत्म-स्वरूप 'आत्मा' की यथार्थता को भूल कर इस (विश्व) की सत्ता को देखते प्रतीत होते हैं। ___वैसे उपनिषद् तथा अन्य ग्रन्थों में असंख्य सृष्टि-सम्बन्धी सिद्धान्त बताये गये हैं । कई श्रुतियों में केवल तीन तत्त्वों का बखान किया गया है और कहीं तो पाँच तत्त्वों की व्याख्या की गयी है। कतिपय ग्रन्थ हमें यह बताते हैं कि सर्व-शक्तिमान् परमात्मा के स्पन्दित होने के फल-स्वरूप सृष्टि प्रकट हुई जब कि कई जगह यह कहा गया है कि सृष्टि सहसा दष्टि गोचर हुई है।
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