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( १२५ ) और चौथा भूमि की सतह पर होने वालो एक दराड़ । ये विविध कल्पनाएँ इस कारण हुई कि इन व्यक्तियों को प्रारम्भ में ही रस्सी के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान न था । यदि इन्हें रस्सी का पूर्ण ज्ञान होता तो उसमें अन्य पदार्थों का 'दर्शन' कभी नहीं हो सकता।
ऐसे ही 'आत्मा' की भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा विविध रूप से व्याख्या की गयी है । किसी ने इसे जीवात्मा कहा है, किसी ने 'प्राण' और किसी ने मन । संक्षेप में इसे जीव, प्राण, मन, बुद्धि, शरीर आदि भी समझा गया है । अविद्या के घोर तिमिर में पड़े हुए जब हम इस प्रकार की अनेक कल्पनाओं का 'आत्मा' में आरोप करने लगते हैं तो हमें हर्ष-विषाद, विद्याअविद्या, जय-पराजय, पाशा-निराशा आदि विविध भ्रान्तियाँ 'आत्मा' में हो प्रतिविम्बित होती प्रतीत होती हैं । वास्तव में यह विशुद्ध, चेतन-शक्ति (आत्मा) इन लक्षणों से सर्वथा अछूती है क्योंकि ये तो इस वास्तविक तत्त्व में आरोप ही हैं।
इस प्रकार के भ्रम हमें इस कारण होते हैं कि हम सर्व-व्यापक 'आत्मा' के शद्ध स्वभाव का ज्ञान नहीं रखते । सभी उपनिषदों ने इस तथ्य का पूर्ण रूप से समर्थन किया है । जिस क्षण हमें प्रात्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होगा उसी क्षण हमें जन्म, बुद्धि, रोग, जरा, मृत्यु आदि के विषय में पता चल जायेगा कि वस्तुतः इनकी आत्मा में स्थिति नहीं बल्कि ये सब आत्मा में आरोपमात्र हैं।
इतना होने पर भी साँप का मृदुल चर्म, उसका उज्ज्वल प्राकार, भयानक फन और विषैले दाँत-ये सब मिथ्या सर्प में लुप्त हो जायगे न कि उस रस्सी में, क्योंकि रस्सी में ही सर्प का आरोप किया गया था । रज्जु में 'सर्प' की भावना होने से हम उसके लेशमात्र अंश को भी मिथ्या सिद्ध नहीं कर सकते।
निश्चितायां यथा रज्ज्वाँ विकल्पो विनिवर्तते । रज्जुरेवेति चाद्वैतं तद्वदात्मा विनिश्चयः ॥१८॥
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