________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( १२६ ) जब रस्सी का वास्तविक स्वरूप जाना जाता है तब उससे सम्बन्धित सभी भ्रान्तियाँ दूर हो जाती हैं । उस समय (हमें) यह दृढ़ विश्वास हो जाता है कि यह एक अपरिवर्तनीय रस्सी है । विशुद्ध ज्ञान-स्वरूप 'आत्मा' के सम्बन्ध में यही बात घटित होती है ।
जब तक हमें रस्मी के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान नहीं हो जाता तब तक हमें उसमें सर्प या छड़ी अथवा जल-रेखा या फटी हुई भूमि की भ्रान्ति होती रहती है । जब हम इस भ्रम की जानकारी प्राप्त करके इसके वास्तविक स्वरूप (रस्सी) को जान लेते हैं तो उसमें हमारे सभी प्रारोप तुरन्त अदृश्य हो जाते है।
ठोक ऐसे आत्मा की खोज कर लेने पर (इसमें) हमारे सभी आरोप इस प्रकार लुप्त हो जाते हैं मानो किसी ने जादू वाली छड़ी का स्पर्श कर दिया हो । जब हम विवेक-पूर्ण विश्लेषण द्वारा इन्द्रियों में लिप्त मन को हटा लेते हैं और साथ शरीर, मन तथा बुद्धि सरीखे निकटतर उपकरणों से अपने व्यक्तित्व को अलग कर देते हैं तब हमारी चेतना-शक्ति अपने केन्द्र की ओर ही आकर्षित हो जाती है । ऐसे सौभाग्यशाली अवसर पर ज्ञान-स्वरूप प्रात्मा स्वयमेव पालोकित हो उठती है । ___यदि हम एक बार इस शाश्वत देवी जीवन-तत्त्व को जान लेते हैं (अर्थात् हमें अपने स्वरूप का ज्ञान हो जाता है), जो हमारी जीव-भावना तथा भ्रान्ति का आधारभूत है, तो इस अनेक रूप वाले मिथ्या संसार तथा अन्य भ्रान्तियों के बन्धन से हमें मोक्ष मिल जाता है।
प्राणादिभिरनन्तश्च भावैरेतविकल्पितः।
मार्यषा तस्य देवस्य यया संमोहितः स्वयम् ॥१६॥ विविध भावनाओं से 'प्रात्मा' को प्राण प्रादि माना जाता है । यह सब अपने आप प्रकाशमान आत्मा का ज्ञान न होने के कारण (अर्थात् 'माया' के द्वारा) होता है । इस (माया) से ही
For Private and Personal Use Only