________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( १२८ )
जो व्यक्ति यह विश्वास रखते हैं कि यह सृष्टि तथा इसके विविध पदार्थ मिथ्या है उनकी दृष्टि में सृष्टि से सम्बन्धित अनेक सिद्धान्त कोई महत्व नहीं रखते तो भी अध्ययन की प्रारम्भिक अवस्था में साधक को इस सम्बन्ध में कुछ न कुछ जानकारी दी जाती है। विद्यार्थी की प्रवृत्ति मनोवैज्ञानिक होने के कारण पदार्थमय जगत की सष्टि की व्याख्या की जाती है क्योंकि उसके मानसिक विकास के प्रारम्भ में यह (संसार) उसे वास्तविक दिखायो देता है । वस्तुतः सभी 'उपनिषद्' अन्त में विद्यार्थियों को परमात्म-तत्त्व के उच्चतम स्तर तक पहुँचा देते हैं जहाँ से यह संसार तथा इसके विभिन्न नाम-रूप मिथ्या और अवास्तविक दिखायो देते हैं।
अगले मन्त्रों में हमें सृष्टि के प्राय. ३५ ऐसे सिद्धान्तों अथवा दृष्टिकोणों का पता चलेगा जो श्री गौड़ाद के जीवन काल में प्रचलित थे । ये सबके सब दार्शनिक भावों से पूर्ण नहीं हैं। इनमें से कुछ तो उस समय अधिक प्रसिद्ध थे । ऋषि ने इन्हें क्रमानुसार व्यवस्थित करने का रत्ती भर कष्ट नहीं किया । अपने विचारों को लेखनीबद्ध करते समय उन्हें जिस जिस मत का ध्यान आया उसे उन्होंने लिख दिया । वे तो विरक्ति भाव से इनको छन्दोबद्ध कर पाए । ऐसा करना ठीक भी था क्योंकि खम्भे में भासमान होने वाले 'भूत' का जीवन-चरित्र लिखना क्योंकर सम्भव हो सकता है ?
श्री शंकराचार्य ने भी अपने भाष्य में इन तुच्छ एवं महत्वहीन बातों को ओर तनिकमात्र ध्यान नहीं दिया । __इतना होने पर भी हमारे युग के कुतूहल-पूर्ण विद्वानों का इन विचारों को पढ़ने से पर्याप्त मनोरंजन होगा। इसलिए हम बीच बीच में इन विचारधाराओं का विश्लेषण करेंगे । इससे शायद हमें यह पता चल सके कि प्राध्यात्मिक साहित्य की रचना किसी विद्वान व्यक्ति द्वारा सहसा इसलिए नहीं की गयी है कि उस युग के लोगों की अनभिज्ञता का अनुचित लाभ उठाते हुए उन्हें धोखा दिया जाय । इसके विपरीत युग युग में विचारवान् प्रखरबुद्धि व्यक्ति जीवन की विविध समस्याओं का विश्लेषण एवं गहन
For Private and Personal Use Only