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( १२० ) स्वप्न तब तक दिखायी देता है जब तक यह भावना हमारे मन में दृढ़ रहती है; परन्तु इस प्रत्यक्ष संसार में एक वस्तु को धारणा किसी और समय की दूसरी वस्तु के प्रसंग में की जा सकती है । इस तरह हम यह कह सकते हैं कि"सुरेन्द्र बस के आने तक यहाँ रहेगा।" यहाँ सुरेन्द्र का जाना बस के आने पर निर्भर है और यह बात भविष्य में घटित होनी है। इसलिए यहाँ पर यह आपत्ति केवल 'जाग्रत' और 'स्वप्न' अवस्था के भेद को दिखाने के लिए की जाती है। यह बाल की खाल उतारना नहीं तो और क्या है ?
ऊपर बतायी गयी विचार-धारा वाले 'जाग्रत' संसार को इस कारण मानते हैं कि यहाँ समय के अन्तर की धारणा की जाती है अर्थात् दो घटनाओं को उनके घटित होने के कालान्तर की दृष्टि से जाना जा सकता है जब कि स्वप्न-जगत् के पदार्थ हमारे मन में ही सीमित रहते हैं और हमारे मन में कोई और विचार आने पर ये तुरन्त लुप्त हो जाते है।
श्री गौड़पाद ने इस युक्ति का बलपूर्वक खण्डन किया है क्योंकि उन के विचार में यह युवित पूर्ण रूप से अमान्य है । ऋषि कहते हैं कि जाग्रतावस्था के जिस कालान्तर का हवाला दिया जाता है वह केवल हमारी मानसिक कल्पना के कारण प्रतीत होता है । यह उसी प्रकार मिथ्या है जिस प्रकार हमारा स्वप्न-जगत् । अतः इन्होंने यह परिणाम निकाला है कि इन दोनों ('जाग्रत' तथा 'स्वप्न') अवस्थाओं के दृष्ट-पदार्थों में उपरोक्त अालोचक किसी प्रकार का भेद नहीं बता पाये हैं।
अव्यक्ता एव येऽन्तस्तु स्फुटा एव च ये बहिः ।
कल्पिता एव ते सर्वे विशेषस्त्विन्द्रियान्तरे ॥१५॥ मन के भीतर ही रहने वाली कल्पनाएँ, जो अव्यक्त रूप से वहाँ बनी होती हैं, तथा ऐसे विचार जो बाह्य संसार में प्रकट हो कर हमें दृष्ट-पदार्थों का ज्ञान कराते हैं--ये दोनों मिथ्या हैं । यदि इनमें कोई भेद पाया जाता है तो यह है कि इन्हें अनुभव करने वाली इन्द्रियाँ विभिन्न हैं जिस कारण बाह्य संसार वास्तविक प्रतीत होता है।
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