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( ११६ ) 'कठोपनिषद्' में विशेष रूप से कहा गया है कि यह “बहिर्मुखी दृष्टि' ही प्रत्येक व्यक्ति को मुग्ध रखती है और इससे बचने का एकमात्र उपाय 'अन्तर्मुखी दृष्टि' को अपनाना है । जब यह चेतना-शक्ति बाह्य संसार के साथ साथ शरीर, मन और बुद्धि से अपना सम्बन्ध विच्छेद करके अन्तर्मुखी होती है तो यह आत्म-ज्ञान की स्थिति को प्राप्त कर लेती है अर्थात यह अपने वास्तविक स्वरूप से साक्षात्कार कर लेती है । इसे 'आत्मानुभूति' कहा जाता है और इस विधि को अपनाने से हम विविध पदार्थों वाले मिथ्या-जगत से मुक्त हो सकते हैं।
चित्तकाला हि येऽन्तस्तु द्वयकालाश्च ये बहिः ।
कल्पिता एव ते सर्वे विशेषो नान्यहेतुकः ॥१४॥
जब तक हमारे मन में कामना बनी रहती है तब तक हम अपने भीतर बहुत कुछ अनुभव करते हैं और दो काल में दिखायी देने वाले बाह्य इन्द्रिय-विषय की अनुभूति करते रहते हैं; किन्तु ये दोनों (जगत) कल्पनामात्र ह । इन दोनों के पारस्परिक भेद को जानने के लिए कोई विशेष उपकरण नहीं है ।
जो व्यक्ति 'वेदान्त' में आस्था नहीं रखते वे यहाँ शंका करते हैं कि जाग्रतावस्था और स्वप्नावस्था के दृष्ट-पदार्थों में भेद पाया जाता है । इस विचार-धारा वाले कहते हैं कि हमारे भीतर का जगत् केवल एक काल-विन्दु पर आश्रित है जब कि स्थूल संसार के पदार्थों में कालान्तर पाया जाता है।
___ ये व्यक्ति ऐसी धारणा करते हैं कि हमारे मन म उठने वाला कोई संकल्प उस समय तक वहाँ रह तथा प्रकट हो पाता है जब तक उसको सत्ता बनी रहती है; किन्तु स्थूल संसार के पदार्थ, चाहे ये प्रकट हों या नहीं, कुछ काल तक अवश्य बने रहते हैं । इस विचार वाले विद्वान कहते हैं कि हमें
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