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है ?'' यहाँ ऋषि ने स्पष्ट रूप से इसका यह उत्तर दिया है कि “वह आत्मा ही है ।" अपने बाहिर अथवा भीतर के जगत में हमें जो भ्रान्ति होती रहती है उसको प्रकाशमान करने वाली यह चेतन-स्वरूप आत्मा है ।
वस्तुतः इस विषय पर उपनिषदों ने अनेक युक्तियाँ दी हैं जिनके द्वारा यह सिद्ध किया गया है कि सभी पदार्थ शुद्ध-चैतन्य आत्मा के द्वारा प्रकामान होते हैं । इन्होंने तो यहाँ तक कह दिया है कि आकाश को देदीप्यमान करने वाले रवि, शशि तथा तारे भी इस सनातन-तत्व से ज्योति प्राप्त करते हैं। यह बात ठीक भी है क्योंकि यदि यह शाश्वत तत्व न होता तो सूर्य, चन्द्रमा और तारे कभी प्रकाशमान न होते । सूर्य को ज्योतिर्मान करने वाले हम (प्रात्म-स्वरूप) ही हैं क्योंकि अर्द्धनिमीलित नेत्रों वाला मृत-व्यक्ति सूर्य को नहीं देख सकता । इस प्रकार हम देखते हैं कि जिस शरीर से प्राण पलायन कर चुके हों उसके लिए तो सूर्य भी एक निष्प्राण वस्तु बन कर रह जाता है। यदि हम प्राण-हीन हो जाये तो रवि, शशि और तारे सब अपना महत्व खोकर अदृश्य हो जाएँगे । अतः शुद्ध चेतन-स्वरूप ही सर्वत्र प्रकाशमान तत्व है।
अतएव वेदान्त में यह सर्व-मान्य घोषणा की गयी है कि हमारे जीवन की चेतना-शक्ति बाह्य संसार के पदार्थों तथा विविध विचार, आवेग, भाव आदि के अन्तर्ग्रवाह को जानती रहती है । हमारा स्वप्न-जगत भी इस तेजोमयी चेतना द्वारा प्रकाशमान होता है । यह आत्मा की ज्योति है जो हमारे लिए जाग्रतावस्था में दिन की स्थूल रोशनी को ज्योतिर्मान करती है।
विकरोत्यपरान्भावानन्तश्चित्त व्यवस्थितान् ।
नियताँश्च बहिश्चित्त एवं कल्पयते प्रभुः ॥१३॥ अधिष्ठातृ-देव 'प्रात्मा' अपने मन को अन्तर्मुखी करके बाह्य संसार तथा भीतरी जगत के विभिन्न पदार्थों को कल्पना करता है । ये दोनों (जगत) मन की वासनाओं या संस्कारों
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