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( ८६ )
मकारभावे प्राज्ञस्य मानसामान्यमुत्कटम्
मात्रा संप्रतिपत्तौ तु लयसामान्यमेव च ॥ २१॥ 'प्राज्ञ' और 'म्' दोनों स्पष्ट रूप से समान हैं क्योंकि ये दोनों 'मापक' हैं और साथ ही प्राज्ञ' तथा 'म्' में सभी कुछ समा जाता है ।
त्रिषु धामसु यत्तल्यं सामान्यं वेत्ति निश्चितः । सः पूज्यः सर्वभूतानां वन्द्यश्चैव महामुनिः ॥२२॥ जो मनुष्य इन तीन मात्रात्रों और तीन अवस्थानों के समान गुणों को निश्चयपूर्वक जान लेता है वह सब प्राणियों द्वारा पूज्य एवं वन्दनीय होता है और वास्तव में वह सब से महान् ऋषि होता है ।
ऊपर लिखे चार मन्त्रों की व्याख्या जानबूझ कर नहीं की गयी है क्योंकि उपनिषदों के सानुरूप गद्य मन्त्रों में इस सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा जा चुका है ।
प्रकारो नयते विश्वमुकारश्चापि तेजसम् ।
मकारश्च पुनः प्रज्ञं नामात्रे विद्यते गतिः ॥२३॥
( साधक ) मात्रा 'अ' द्वारा सहायक जाग्रतावस्था के सन्तुलित व्यक्तित्व ( विश्व ) को प्राप्त करता है; 'उ' मात्रा उसके मन एवं बुद्धि का विकास करके उसे 'तेजस' की पदवी देती है और 'म्' की मात्रा का ध्यान करने से वह 'प्राज्ञ' बन जाता है । 'श्रमात्रा' में उसे कुछ प्राप्ति नहीं होती ।
इस मन्त्र में ॐ की तीन मात्रात्रों (श्र, उ और म्) की व्याख्या करने वाले उपनिषद-मन्त्रों द्वारा जो लाभ होते हैं उनकी प्रवृत्ति की गयी है । इसे पहले ही वर्णन किया जा चुका है । ॐ के प्रमात्र - भाग' का ध्यान करने
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