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( ८६ ) को अपनाते हुए वे 'तुरीयावस्था' का, जिसे वे मंत्र में विस्तार से नकारात्मक भाषा में समझाया जा चुका है, इस अमात्र ॐ में आरोप करें।
जिस प्रकार ॐ की तीन मात्राओं पर ध्यान जमाने से होने वाले लाभ का पिछले मंत्रों में उल्लेख किया गया है उसी प्रकार यहाँ प्राचार्य ने शिष्य से कहा है कि ॐ की निस्तब्धता-पूर्ण अवस्था का नियम-पूर्वक ध्यान करते रहने से साधक का पृथकत्व भाव इस दिव्य, सनातन तथा अनादि सर्वात्मा तत्त्व में समा जाता है। यहाँ 'जाग्रत', 'स्वप्न' और 'सुषुप्ति' का कोई भौतिक लाभ प्राप्त नहीं होता । यह बात स्वतःसिद्ध है क्योंकि हमारे ध्यान का विषय दृष्ट-जगत् से परे (प्रपञ्चोपशमः) है । इसलिए जब हम इस पर ध्यान जमाते हैं तब हमें किसी सांसारिक लाभ की प्राप्ति नहीं हो सकती; किन्तु यह 'ध्यान' अकारथ नहीं जा सकता । यह नियम अटल है कि साधक जिसका ध्यान करता है वह उसी का स्वरूप हो जाता है । अमात्र ॐ का ध्यान करने का उसका यह उद्देश्य है कि इस विधि को अपना कर वह अपने विविध आरोपों तथा मिथ्याभिमान का अन्त कर देता है क्योंकि सनातन-तत्त्व ही अलौकिक, सर्वव्यापक और परिपूर्ण है ।
दूसरे उपनिषदों में भी इस विचार को कई बार पुनरावृत्ति की गयी है । ऐसा प्रतीत होता है कि महान् ऋषियों ने अपने अनथक प्रयास से शिष्य को ध्यान की ऐसी अवस्था तक पहुँचा दिया जहाँ उसने कम से कम एक निमेष के लिए भूत-भविष्यत् को भुला कर वास्तविकता की झलक ले ली । ऋषि यह चाहते थे कि अपने जीवन में वह शिष्य एक क्षण के लिए 'काल' की सभी अवस्थाओं को लाँघ ले । इसी काल-विन्दु में अविनाशी-तत्व अधिष्ठित है।
अनादि एवं अनन्त तत्त्व किसी विशेष काल अथवा युग में नहीं प्राप्त होता । इसे हम इस क्षण अनुभव कर सकते हैं । हमारे जीवन का प्रतिक्षण देवी तथा पवित्र है, जिसमें इस अनादि का निवास रहता है; किन्तु हम इसे अनुभव नहीं कर पाते । हम तो गड़े मुर्दो को उखाड़ने अथवा भविष्य के गर्भ
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