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( ६७ ). इसे केवल विवेक, अध्ययन और मनन द्वारा प्राप्त करना संभव नहीं । इससे यह बात समझ लेनी चाहिए कि 'प्रात्मा' को जान लेने से ही वेदान्ती साधक पूर्णता को अनुभव नहीं कर सकता । उसके लिए यह आवश्यक है कि वह अपने जीवन को इसके अनुकूल ढालने के लिए तत्पर हो और नित्य-प्रति ध्यानावस्थित होने में प्रयत्नशील रहे। इससे उसके शुद्ध मन और बुद्धि ऊँचे उठ कर सर्व-विद्, सर्व-व्यापक चेतना-शक्ति के विशुद्ध स्तर पर पहुँच जायेंगे । वेदान्त की भाषा में जानना' शब्द का अर्थ प्रात्मानुभूति को प्रकट करना है।
प्रणवं हीश्वरं विद्यात् सर्वस्य ह.दि संस्थितम् । सर्वव्यापिनमोङ्कारं मत्वा धीरो न शोचति ॥२८॥
ॐ को ही ईश्वर जानो जो सबके हृदय में सदा विद्यमान रहता है । विवेक-शक्ति के द्वारा सर्वव्यापक ॐ को अनुभव करने वाला कभी शोक को प्राप्त नहीं होता।
इस अध्याय में ॐ के विस्तार तथा महत्व की व्याख्या की गयी है। श्री गौड़पाद ने 'जाग्रत', 'स्वप्न', 'सुषुप्त' तथा 'तुरीय' अवस्थाओं में मात्रा वाले और अमात्र ॐ के अभिप्राय को समझा कर यह सहज घोषणा की है कि व्यापक रूप ॐ में वह क्रियमाण शक्ति विद्यमान है जो सब प्राणियों के हृदय में सत्तारूढ़ है । नारद-भक्ति-सूत्रों और अन्य भक्ति सिद्धातों में भगवान को अन्तर्यामी भी कहा गया है । यहाँ हमें बताया गया है कि ॐ 'ईश्वर' है जो सबके हृदय में सर्वदा विद्यमान रहता है । इस भाव की श्रीमद्भगवद्गीता म भी व्याख्या की गयी है।
भगवान को सब नाम-रूप में देखना ही अनुभूति अथवा पूर्णता है । इस प्रकार हम सर्वत्र पूर्णता को अनुभव कर लेते हैं । इस पूर्णता की अपने व्यक्तित्व में अनुभूति हमें सर्व-व्यापक परिपूर्णता को अनुभव करने में सहायक होती है । ज्ञानी की दृष्टि में यह सब लय, एक-रूप तथा सुन्दरता से युक्त है। ऐसा ज्ञानी विभिन्नता में अभिन्नता, असुन्दरता में सौन्दर्य तथा दुःख में
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