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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६७ ). इसे केवल विवेक, अध्ययन और मनन द्वारा प्राप्त करना संभव नहीं । इससे यह बात समझ लेनी चाहिए कि 'प्रात्मा' को जान लेने से ही वेदान्ती साधक पूर्णता को अनुभव नहीं कर सकता । उसके लिए यह आवश्यक है कि वह अपने जीवन को इसके अनुकूल ढालने के लिए तत्पर हो और नित्य-प्रति ध्यानावस्थित होने में प्रयत्नशील रहे। इससे उसके शुद्ध मन और बुद्धि ऊँचे उठ कर सर्व-विद्, सर्व-व्यापक चेतना-शक्ति के विशुद्ध स्तर पर पहुँच जायेंगे । वेदान्त की भाषा में जानना' शब्द का अर्थ प्रात्मानुभूति को प्रकट करना है। प्रणवं हीश्वरं विद्यात् सर्वस्य ह.दि संस्थितम् । सर्वव्यापिनमोङ्कारं मत्वा धीरो न शोचति ॥२८॥ ॐ को ही ईश्वर जानो जो सबके हृदय में सदा विद्यमान रहता है । विवेक-शक्ति के द्वारा सर्वव्यापक ॐ को अनुभव करने वाला कभी शोक को प्राप्त नहीं होता। इस अध्याय में ॐ के विस्तार तथा महत्व की व्याख्या की गयी है। श्री गौड़पाद ने 'जाग्रत', 'स्वप्न', 'सुषुप्त' तथा 'तुरीय' अवस्थाओं में मात्रा वाले और अमात्र ॐ के अभिप्राय को समझा कर यह सहज घोषणा की है कि व्यापक रूप ॐ में वह क्रियमाण शक्ति विद्यमान है जो सब प्राणियों के हृदय में सत्तारूढ़ है । नारद-भक्ति-सूत्रों और अन्य भक्ति सिद्धातों में भगवान को अन्तर्यामी भी कहा गया है । यहाँ हमें बताया गया है कि ॐ 'ईश्वर' है जो सबके हृदय में सर्वदा विद्यमान रहता है । इस भाव की श्रीमद्भगवद्गीता म भी व्याख्या की गयी है। भगवान को सब नाम-रूप में देखना ही अनुभूति अथवा पूर्णता है । इस प्रकार हम सर्वत्र पूर्णता को अनुभव कर लेते हैं । इस पूर्णता की अपने व्यक्तित्व में अनुभूति हमें सर्व-व्यापक परिपूर्णता को अनुभव करने में सहायक होती है । ज्ञानी की दृष्टि में यह सब लय, एक-रूप तथा सुन्दरता से युक्त है। ऐसा ज्ञानी विभिन्नता में अभिन्नता, असुन्दरता में सौन्दर्य तथा दुःख में For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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