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परिपूर्णता के दर्शन करता है । वह जो कुछ देखता है उसमें 'सत्य' तथा 'परमसुख' की मूल-सत्ता निहित होती है । इस प्रकार ॐ को सर्व-व्यापक 'ब्रह्म' जानकर वह बुद्धिमान् व्यक्ति जीवन की किसी विषम-स्थिति में शोकातुर नहीं होता । सत्य की यह अन्तर्मय तथा बाह्य अनुभूति केवल उस सौभाग्यशाली व्यक्ति-विशेष को हो सकती है जिसकी विवेक-बुद्धि पूर्णरूप से विकसित हो चुकी हो। इस कारण माता 'श्रुति' ने अाग्रह-पूर्वक कहा है कि ऐसा व्यक्ति कभी दुःखी नहीं होता । वास्तव में वेदान्त वह मार्ग है जो तर्क तथा यक्ति की उत्तुग शृंखलाओं का भेदन करके पूर्णता के सर्वोच्च शिखर तक पहुँचता है।
अमात्रोऽनन्तमात्रश्च द्रुतस्यापशमः शिवः ।
ओंकारो विदितो येन स मुनिर्नेतरो जनः ॥२६॥ जिसने मात्र तथा अमात्र ॐ को जान लिया है । (जो ध्वनि-युक्त तथा ध्वनि-रहित है) जो द्वेत रहित होन के कारण सदा शिव-स्वरूप है, वह मुनि है न कि कोई और व्यक्ति ।
अमात्र का अर्थ है ध्वनि-रहित ॐ अर्थात् तुरीयावस्था । 'मात्रा' का अर्थ है 'मिक़दार' । जिसकी अपरिमित मिक़दार है वह 'अनन्त-मात्र' कहा जाता है । इसका यह अर्थ है कि "इसके परिमाण को निर्धारित करने के लिए कोई ऐसा मान-दण्ड उपलब्ध नहीं जो इसके ओर-छोर को नाप सके''यह विचार श्री शंकराचार्य का है । यह सब प्रकार पवित्र है क्योंकि सभी मिथ्या नाम-रूप वाले जगत इसके अन्तनिहित हैं। इस तथ्य को अनुभव कर लेने के बाद मनुष्य अपने आपको सर्व-व्यापक चेतना समझने लगता है जिससे उसे संसार में स्वभावतः कोई हर्ष-विषाद या इष्ट-अनिष्ट दिखायी नहीं देता।
जो कोई इस 'प्रोकार' (न केवल ॐ बल्कि इसके रहस्य) को अनुभव कर लेता है वह यथार्थ आत्मानुभूत विद्वान मुनि है। इस पर बल देने तथा अपने उन शिष्यों को, जो केवल पुस्तक-ज्ञान द्वारा 'मुनि' बनने का स्वप्न लेते
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