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को स्पष्ट करना चाहते हैं कि सर्व-व्यापक तत्त्व के अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं पायी जाती। इस अद्वितीय तथा सनातन 'आत्मा' के भिन्न कोई विजातीय वस्तु नहीं है जो इसे सीमित कर सके। इसका यह अभिप्राय है कि 'आत्मा' से बाहर किसी प्राणी या वस्तु की पृथक् सत्ता नहीं है । यह एक रूप है और इसमें स्वगत-भेद नहीं पाया जाता।
यदि यह बात मान ली जाए कि इसका न कोई 'कारण' है और न ही 'कार्य' तो इस भेद-रहित 'प्रात्मा' के सिवाय और किसी की सत्ता नहीं रह सकती, जिससे यह 'तत्त्व' अव्यय (परिवर्तन-रहित) सिद्ध हुआ ।
सर्वस्य प्रणवो ह्यादिमध्यमन्तस्थैव च । एवं हि प्रणवं ज्ञात्वा व्यश्नुते तदनन्तरम् ॥२७॥
ॐ ही सब का आदि, मध्य तथा अन्त है । ॐ को निश्चयपूर्वक जानने वाला इस ‘परमात्म-तत्त्व' को तुरन्त प्राप्त (अनुभव) कर लेता है ।
जब हम खम्भे में भूत का आरोप कर बैठते हैं तब उसमें दिखायी देने वाले भूत के सभी अंग वास्तव में खम्भे के विविध भाग होते हैं । इस तरह उस खम्भे का प्रत्येक भाग न केवल 'भत' का आधार होता है बल्कि भत की भावना उसी में होने लगती है । वह (भूत) उस (खम्भे) में ही प्रकट होता है । जितना समय हमें उस भूत का आभास रहता है उतना समय खम्भे की सत्ता नहीं होती; किन्तु जिस क्षरण हमें 'खम्भे' का पता चल जाता है उसी क्षण 'भूत' उस खम्भे में समा जाता है । ऐसे ही 'ब्रह्म' का सांकेतिक चिह्न प्रणव (ॐ) 'आदि', 'मध्य' तथा 'अन्त' में सनातन रूप से सत्तारूढ़ रहता है।
जन्म, विकास तथा मरण (आदि, मध्य और अन्त) की इस जीवनलीला का सूत्र ॐ ही है --- इस भाव को जान लेने के बाद ज्ञाता 'ब्रह्म' ही हो जाता है । वेदान्त तथा इह-लोक के विविध क्षेत्रों के ज्ञान में महान् अन्तर है । वेदान्त में जानने का अर्थ है अनुभव करना अर्थात् तादात्म्य होना।
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