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( १०८ ) अनुभूति हमें इस कारण होती है कि हमारे ये अनुभव 'कर्ता' तथा 'कर्म के पारस्परिक सम्बन्ध पर स्थित हैं । वेदान्त का यह सिद्धान्त है कि प्रत्यक्ष संसार के पदार्थ हमारी आत्मा पर आरोपमात्र हैं और ये (पदार्थ) अपने आधार (आत्मा) के बिना कोई अस्तित्व नहीं रख सकते । इस विचार से दृष्ट-पदार्थ हमारे नटखट मन की ही उपज हैं । केवल 'आत्मा' अनादि तथा सर्व-व्यापक वास्तविक तत्व है।
आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा। वितथैः सदृशाः सन्तोऽवितथा इव लक्षिताः ॥६॥ जिसका आदि और अन्त नहीं उसका वर्तमान भी नहीं होगा । सभी दृष्ट-पदार्थ मिथ्या हैं तो भी इन्हें वास्तविक समझा जाता है।
___ इस मंत्र में श्री गौड़पाद ने दष्ट-पदार्थों को अवास्तविक सिद्ध करने के लिए एक और युक्ति दी है । जो पहले नहीं रहा और आगे न होगा, भला वह मध्य में कैसे रह सकता है ? एक उदाहरण लीजिए । जब कोई व्यक्ति रज्जु (रस्सी) में मर्प को देखता है तो उससे पूर्व उसमें सर्प नहीं था । यह जान लेने पर कि वस्तुतः वह रस्सी है साँप का आभास नहीं होगा । इस तरह हम उस वस्तु को 'मिथ्या' कहते हैं जो पहले नहीं थी और जो यथार्थ ज्ञान हो जाने पर हमारी धारणा के अनुसार नहीं रह पाती।
यही दशा जाग्रतावस्था की है । जिन सिद्ध पुरुषों ने प्रात्म-साक्षात्कार कर लिया है उनकी दृष्टि में हमारी 'जाग्रतावस्था' के सभी दृष्ट-पदार्थ मिथ्या होते हैं। श्री गौड़पाद, जिन्होंने अात्म अनुभव को प्राप्त किया था, इस दृष्टि से जाग्रतावस्था के सब पदार्थों को मिथ्या कहते हैं। उनके विचार में प्रत्यक्ष संसार एक बड़ा स्वप्न है ।
सप्रयोजनता तेषां स्वप्ने विप्रतिपद्यते ।
तस्मादाद्यान्तवत्त्वेन मिथ्येव खलु ते स्मृताः ॥१७॥ स्वप्नावस्था में प्राप्त किये गये अनुभवों से यह कभी सिद्ध
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