________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
इन दो मन्त्रों में श्री गौड़पाद हमारे समक्ष जीवन के दो पहलुओं (पदार्थसंसार तथा विचार-जगत) को रख रहे हैं। स्वप्न में भी स्वप्न-द्रष्टा अपने विचार तथा पदार्थों का पृथक् जगत रखता है । वह स्वप्न-जगत में स्वप्न देखता हुआ दृष्ट-पदार्थों को वास्तविक समझता है । अपने विचारों तथा कल्पनाओं को वह (स्वप्न-द्रष्टा) असत् मानता है । इन मन्त्रों में 'असत्' शब्द का अर्थ जगत का न होना नहीं समझना चाहिए अपितु इसका मिथ्या होना । भोजन की मेज पर प्रापके सामने प्लेट में पड़े लड्डू वास्तविक हैं। यदि आपके मनमें लड्डुओं का ध्यान आता है तो वह 'असत्' होगा। इस तरह यहाँ टीकाकार ने विचार-जगत तथा पदार्थ-संसार में स्पष्ट भेद किया है।
इन दोनों में अन्तर बताने के बाद ऋषि ने हमें यह समझाया है कि स्वप्न में हम विचार-जगत तथा पदार्थमय संसार दोनों का अनुभव करते हैं और जब तक स्वप्न दिखायी देता है तब तक स्वप्न-द्रष्टा स्वप्न के पदार्थों को वास्तविक समझता है और उसे कल्पना एवं विचार-जगत के मिथ्यात्व का ध्यान रहता है । जब वह निद्रा का त्याग कर देता है तब उसे इन दोनों पहलुओं (पदार्थमय संसार तथा उसके मानसिक विचारों) के मिथ्यात्व का ज्ञान हो जाता है क्योंकि इन सब की स्थिति स्वप्न में ही है ।
ठीक इस तरह जाग्रतावस्था में भी बाह्य-संसार का अनुभव होता है जिसकी दृष्ट-पदार्थों तथा हमारे मानसिक आवेग एवं विचारों के संमिश्रण से रचना होती है और इन्हीं की सहायता से हम पदार्थमय संसार का व्यक्तिगत मूल्यांकन करते हैं। एक साधारण व्यक्ति इस बात को स्वीकार करेगा कि उसकी सभी कल्पनाएँ उसके मन की तरंगों के कारण उठती हैं; अत: वे मिथ्या हैं। इतना होने पर भी वह अपने मानसिक-जगत की अपेक्षा बाह्य-संसार के स्थल पदार्थों को अधिक मात्रा में वास्तविक समझता है। इस सम्बन्ध में श्री गौड़पाद कहते हैं कि आत्म-तत्त्व के स्तर पर जाग्र तावस्था के ये दोनों पक्ष ठीक वैसे ही असत् हैं जैसे स्वप्नावस्था के विचारों का पदार्थमय जगत और स्वप्न-जगत के विचार ।
For Private and Personal Use Only