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( १११ ) आदि । इस लिए कहा जाता है कि स्वप्न झूठा है और इस में देखी जाने वाली वस्तुएँ विचित्र एवं मिथ्या हैं । इस के विपरीत जाग्रतावस्था के संसार में अधिक एकरूपता तथा लय पाई जाती है और यह (संसार) अपनी स्थिति बनाये रखता है । इस लिए (यह कहा जाता है) 'जाग्रत' तथा 'स्वप्न' संसार की तुलना करना एक असंभव बात है।
यहाँ श्री गौड़पाद ने इस प्रश्न का बहुत उपयुक्त उत्तर दिया है । ऋषि कहते हैं कि स्वप्न के दृश्य इस कारण विचित्र प्रतीत होते हैं कि उस समय स्वप्न-द्रष्टा स्वयं एक अद्भुत स्थिति में होता है । स्वप्न-द्रष्टा वह व्यक्ति है जिस ने स्थूल शरीर से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर के अपने मनोमय तथा विज्ञानमय कोश से संपर्क स्थापित कर लिया है और यह स्थिति भी उस समय होती है जब उस की बुद्धि का अधिकांश सुषुप्तावस्था की निष्क्रियता में मग्न हो चुका होता है।
__इस तरह जब मन में विवेक-शक्ति बहुत कम मात्रा में रह जाती है तब यह (मन) इधर-उधर भटकता फिरता है और बहुत समय तक बँधा रहने पर कोई कुता जंजीर खोले जाने पर बिना किसी प्रयोजन इधर-उधर भागने लगता है । स्वप्नावस्था में मन अपनी अनेक वासनाओं को विवेक-शक्ति के बिना इधर-उधर स्वच्छन्द रूप से घूमते देखता है । इन पर विवेक-शक्ति का नियंत्रण नहीं होता जिस से हम विचित्र दश्य देखने लगते हैं। इस भाव को हम इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि स्वप्न-द्रष्टा स्वप्न-जगत् की विचित्र स्थिति के कारण अद्भुत दृश्य देखता रहता है ।
श्री गौड़पाद ने इस प्रसंग में यह उदाहरण दिया है- 'जैसे स्वर्ग म निवास करने वालों की अवस्था में होता है।" हमें विदित है कि प्राचीन पुराणों में देवताओं के अधिपति 'इंद्र' को सहस्र नेत्रों वाला, 'ब्रह्मा' को चतुर्मुख, 'विष्णु' को चतुर्भुज और 'भगवान शंकर' को व्यम्बक (तीन नेत्र वाले) कहा गया है । ये बातें इस कारण ठीक दिखायी देती हैं क्योंकि इन देवताओं को अपने अपने लोक में विशेष सत्ता तथा शक्ति प्राप्त है । ऐसे ही
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