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( ११० ) जाने वाले भोजन से हमारी स्वप्नवर्ती क्षुधा शान्त हो जाती है । इसका यह अर्थ हुआ कि स्वप्न-द्रष्टा की स्वप्नवर्ती भूख को स्वप्न के भोजन ने ही शान्त कर दिया ।
अतः सभी दृष्ट-पदार्थ इस कारण मिथ्या माने जाते हैं क्योंकि वे आदि और अन्त सहित हैं। हमारे स्वप्न के अनभव उतनी मात्रा में यथार्थ है जितनी मात्रा में हमारे जाग्रतावस्था के अनेक पदार्थ । एक अवस्था के पदार्थ दूसरी अवस्था में कोई लाभ नहीं देते ; इस कारण ये सब मिथ्या ही हुए । अतः जाग्रतावस्था के दृष्ट-पदार्थों में उतनी ही यथार्थता है जितनी स्वप्न जगत् की वस्तुओं में।
अपूर्व स्थानिधर्मो हि यथा स्वर्गनिवासिनां । तानयं प्रेक्षते गत्वा यथैवेह सुशिक्षितः ॥८॥
जब स्वप्न -द्रष्टा द्वारा देखे गये पदार्थ जाग्रतावस्था में सुलभ नहीं होते तब (हम यह कह सकते हैं) इनका अस्तित्व स्वप्नद्रष्टा को क्षणिक मानसिक क्रिया पर आधारित होता है जैसा स्वर्ग में निवास करने वालों की अवस्था में होता है । स्वप्नावस्था से संपर्क स्थापित करके स्वप्न-द्रष्टा इन (पदार्थों) को ठीक इस प्रकार अनुभव करता है जैसे वह व्यक्ति जो पूरी हिदायतें लेने के बाद एक स्थान से दूसरे स्थान को जाता है और वहाँ की वस्तुओं को देखता है।
___ यहां यह कहा जा सकता है कि वेदान्त का उदाहरण ठीक नहीं जंचता । वेदान्त के द्वारा यहाँ कहा जा रहा है कि जाग्रतावस्था उतनी ही मिथ्या है जितनी स्वप्नावस्था । शंका करने वाले को भी स्वप्नावस्था मिथ्या दिखायी देती है किन्तु जाग्रतावस्था ऐसी (मिथ्या) नहीं क्योंकि उसके विचार में स्वप्नावस्था में अनेक पदार्थ हमारे अनुभव में आते हैं । ऐसे कई उदाहरण दिये जा सकते हैं जिनमें हमारे मित्रों ने विचित्र अनुभव प्राप्त किये, जैसे आकाश मेंउड़ना, चार सूडों वाला हाथी या पाँच शिर का कीटाणु देखना आदि ।
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