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विरोधी हैं, 'खम्भे' तथा 'भूत' में कोई सम्बन्ध नहीं देखते । उनके विचार में 'भूत' को 'खम्भे' का निम्न स्तर पर स्वरूप नहीं कहा जा सकता।
इस भाव के विरुद्ध वेदान्त की एक आधुनिक विचार-धारा, जिसकी श्री शंकराचार्य तथा उनके अनुयायियों ने नींव डाली है, प्रत्यक्ष संसार की सापेक्ष सत्ता को स्वीकार करती है । यह बात इसलिए नहीं मानी जाती कि श्री शंकराचार्य किसी अवस्था में संसार की सत्ता में कोई विश्वास रखते थे। इन दो विचार-धाराओं में किसी तरह की पारस्परिक होड़ नहीं पायी जाती। वस्तुतः वे एक दूसरे की अनुपूरक हैं। श्री शंकराचार्य का प्रयास ‘साधक' के व्यक्त संसार से अव्यक्त सनातन-तत्त्व की ओर मार्ग दिखाना है ।
___ इस मंत्र में श्री गौड़पाद ने इस भाव पर बल दिया है कि प्रणव (ॐ) न केवल परम-तत्त्व (पर-ब्रह्म) का प्रतिनिधित्व करता है बल्कि यह इस दिखायी देने वाले अपर-ब्रह्म की ओर भी संकेत करता है । सभी प्राणियों की क्रियाओं का उद्गम यह सर्व व्यापक और विशुद्ध चेतन 'अनादि-तत्त्व' ही है। इस भाव को टीकाकार यहाँ समझा रहे हैं । इसके लिए प्रस्तुत मंत्र की दूसरी पंक्ति में विशेष सुन्दर उक्तियों का चयन किया गया है जो अधिकतर शास्त्रीय साहित्य से सम्बन्ध रखती है । इन उक्तियों के महत्त्व को ध्यानपूर्वक समझ लेने पर हमें इनकी भाषा के सौन्दर्य, लालित्य तथा प्रभाव का पता चल जायेगा।
'अपूर्व'- अनुपम, 'ब्रह्म' से पूर्व कोई नहीं हुआ अर्थात् इसका कोई कारण नहीं है । प्रत्येक जात-प्राणी अथवा निर्मित वस्तु का कारण होता है । उससे पूर्व किसी अन्य प्राणी या वस्तु की सत्ता रहती है । 'ब्रह्म' कारणरहित है । यह जन्म-मरण तथा विकार से रहित है । यह अपूर्व है; फिर भी यह शंका उठ सकती है कि कारण-रहित ब्रह्म निश्चय से कार्य का कारण होगा । 'सृष्टि' के विचार को स्वीकार न करते हुए हमें एक साधारण छोटे से शब्द (अनपर) में इस भाव का विरोध मिलेगा । इसका अर्थ यह है कि इसके बाद कोई ऐसा स्वरूप नहीं हुआ जिसका यह (ब्रह्म) कारण हो ।
अनन्तर-जिस के सदृश और कुछ नहीं । यहाँ श्री गौड़पाद इस भाव
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