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इस प्रसंग में भय के लिए मानसिक आवेग के सीमित अर्थ न लेने चाहिएँ । यहाँ भय से अभिप्राय वे सभी कामना, वासना तथा आशाएँ हैं जिन की उत्पत्ति इस (भय) से ही होती है । धन के लिए तृष्णा ही लीजिए। यह तृष्णा इस भय के कारण होती हैं कि यदि हमारे पास धन न हो तो हमारी क्या अवस्था होगी । आहार, आवास, वस्त्र आदि के लिए, जिन्हें हम सामान्यतः जीवन की उपयोगी वस्तुएँ कहते हैं, हमारी आकांक्षा का उद्गम यही भय है । आवास रहित होना, भूखा मरना और नंगा रहना -- ये तीन प्रकार के भय हैं जो हमें आहार, आवास और वस्त्रादि को उपलब्ध करने के लिए बाध्य करते हैं ।
जीवन के सब दुःखों, इसकी परिमितता एवं नश्वरता से हम तभी बच सकते हैं जब हमारा मन ॐ को ध्वनि तथा इसके मर्म को पूर्ण रूप से समझ ले ।
प्रणवो ह्यपरं ब्रह्म प्रणवश्च परः स्मृतः । पूर्वोऽनन्तरोऽबाह्योऽनपरः प्रणवोव्ययः ||२६||
'ॐ' अपर ( छोटी श्रेणी का ) ब्रह्म है और इसे परम ब्रह्म भी कहा गया है । प्रणव (ॐ) अपूर्व है, अनन्त है और साथ ही प्रभावहीन तथा अपरिवर्तनीय ।
श्री गौडपाद, गुरु वसिष्ठ और दूसरे प्राचीन अद्वैतवादी वेदान्त की उस विचार-धारा से सम्बन्ध रखते हैं जो दृष्ट-संसार की वास्तविकता को सापेक्ष रूप से स्वीकार करते हैं । उनका मत है कि यह संसार निम्न श्रेणी का ब्रह्म है जो अपने गुण, स्वभाव, कर्म आदि के कारण परमात्मा का प्रत्यक्ष कराता प्रतीत होता है । वेदान्त में 'अपर' ब्रह्म की पूजा के लिए मूर्ति की व्यवस्था की गयी है । बाद में वेदान्त भाषा में इसे 'सगुण' ब्रह्म कहा जाने लगा । वेदान्त की यह विचार धारा, जिसे मुख्यतः श्री गौड़पाद तथा मुनि वशिष्ठ ने जन्म दिया, 'अपर' ब्रह्म को नहीं मानती किन्तु प्राग्रह पूर्वक यह कहती है कि यह (ब्रह्म) प्रत्यक्ष कदापि नहीं हुआ । इस मत बाले, जो सृष्टिवाद सिद्धान्त के
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