________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
दूसरा अध्याय वैतथ्य प्रकरण
(माया) इस अध्याय में श्री गौड़पाद ने पदार्थमय दृष्ट-जगत के मिथ्यात्व पर प्रकाश डाला है । इस अन्याय और गत अध्याय में क्रम तथा साहित्यिक सम्बन्ध स्पष्ट करते हुए श्री शंकराचार्य कहते हैं- “यद्यपि प्रथम अध्याय में यह कहा गया है कि 'द्वैत' का अस्तित्व नहीं है तथापि यह सब अगम प्रकरण को सामने रख कर कहा गया है । दूसरे अध्याय में तर्क तथा युक्ति के आधार पर इसी मिथ्यात्व की पुष्टि की गयी है ।" प्रस्तुत प्रकरण में 'द्वैत-भाव' को युक्ति द्वारा मिथ्या सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है ।
इस अध्याय में मुख्यतः 'जाग्रत' तथा 'स्वप्न' अवस्था में होने वाले अनुभवों की तुलना करके इस तर्क-युक्त स्पष्ट परिणाम तक पहुँचने का प्रयास किया गया है कि इन दोनों अवस्थाओं के अनुभवों में कोई भेद नहीं है। यदि जाग्रतावस्था वास्तविक है तो स्वप्नावस्था भी वैसी होनी चाहिए । जब हम स्वप्न की अवस्था को मिथ्या मानते हैं तो जाग्रतावस्था को भी उसी मात्रा में अवास्तविक समझना चाहिए । इस तथ्य को सिद्ध करने के उद्देश्य से श्री गौड़पाद ने अनेक तर्कपूर्ण युक्तियों तथा जीवन की आत्मानुभूतियों को शृंखलाबद्ध करके इन दो अवस्थाओं का स्पष्टीकरण किया है।
हम इस बात को तुरन्त मान लेते हैं कि स्वप्नावस्था के अनुभव मिथ्या हैं किन्तु जब हमें यह कहा जाता है कि जाग्रतावस्था भी मिथ्या है तब हम स्वभावतः इसे स्वीकार करने में संकोच करते हैं क्योंकि हम 'जीवन' शब्द को सुनने तथा जानने के इतने अभ्यस्त हैं कि हम इस उक्ति पर विश्वास ही
( १०० )
For Private and Personal Use Only