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सकेगी जब हमें आत्म-ज्ञान होगा। हमें सब से अधिक ज्ञान अपने अभिमानी 'व्यक्तित्व' का है क्योंकि 'मैं' तथा 'मेरे' की भावना हमारे मन में अन्य सभी भावनाओं से अधिक दृढ़ता से बनी रहती है ।
ऐसे ही यदि हम अपने मन में ॐ के उच्चारण को उतना ही स्थान दें जो अब हमने 'मैं' और 'मेरे' को दिया हुआ है तो हम ॐको ठीक उसी तरह समझ पायेंगे जिस तरह हम इस समय अपने मिथ्याभिमान को समझ रहे हैं । यहाँ कारिका का यह परामर्श, कि हमें ॐ में निमग्न होना चाहिए, इसी भाव को स्पष्ट कर रहा है ।
___ जब हम ॐ में (जो 'ब्रह्म' है-जिसकी व्याख्या हम पहले कर चुके हैं) लीन हो जाते हैं तो ॐ का अनुभव 'ब्रह्म' के अनुभव के समान होता है।
___इत तरह इस सत्य-स्वरूप प्रात्मा का अनुभव करने के बाद, जो सर्वव्यापक, सनातन और सर्वज्ञ होने के साथ-साथ मेरा अपना ही स्वरूप है, कोई भय नहीं रह पाता क्योंकि सब नाम-रूप का एकमात्र आधार यह तत्त्व है । भय तभी होता है जब कोई और प्राणी अथवा वस्तु मुझ से भिन्न हो । जब इस अद्वैत आत्मा से कोई अलग व्यक्ति अथवा वस्तु विद्यमान नहीं तो भय से क्या काम ? जो अपने आप ही अस्तित्व रखता है भला उसे किसी दूसरे का क्या भय हो सकता है ?
भय क्या है ? यह हमारे मन की विचार-धारा में अवरोध होने की अवस्था है । मन की सत्ता बने रहने पर ही विचार अवरुद्ध हो सकते हैं । यदि मन ही नहीं तो विचार कसे होंगे और फिर उनमें अवरोध कैसे आ सकेगा? मेरे हाथ, पाँव, नाक आदि से तो विचार नहीं उठते । इनके लिए तो मन का क्षेत्र ही उर्वरा भूमि है । एक ही विचार के प्रवाहित होने पर मन का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। जिसका मन ॐ में व्याप्त हो जाता है उस व्यक्ति के भीतर कोई विशेष विचार-केन्द्र नहीं रह पाता । अतः जहाँ मन नहीं वहाँ भय जैसी मानसिक विषमता नहीं रह सकती ।
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