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( १ ) को जान लेने के बाद किसी और वस्तु की चिन्ता नहीं करनी चाहिए।
शास्त्र' वह ग्रन्थ है जो सिद्धान्तों की व्याख्या करने के साथ साथ वास्तविक तत्त्व को वर्णन करता है । 'प्रकरण' वह ग्रन्थ है जो न केवल दर्शन के गढ़ रहस्यों को समझाए बल्कि अपने मार्ग पर चलने के लिए साधकों का स्पष्ट रूप से पथ-प्रदर्शन करे ताकि वे (साधक) अपनी रक्षा अपने आप कर सकें । प्रस्तुत 'कारिका', जो एक प्रकरण ग्रन्य है, के इस अध्याय के अन्तिम मंत्रों में श्री गौड़पाद हमें विस्तार-पूर्वक यह बता रहे हैं कि किस प्रकार हमें ॐ में ध्यान लगाना चाहिए।
मंत्रों की व्याख्या, जो अभी तक की जा चुकी है, से तथा मंत्रों से हमें इस तथ्य का पता चल गया होगा कि साधक के व्यक्तित्व की कौन-कौन अवस्था है और ॐ की कौन-कौन ध्वनियाँ हैं। हमें 'अमात्र' ॐ का भी ज्ञान है जो हर व्यक्ति की आत्मा का प्रतिनिधित्व करता है । अब श्री गौड़. पाद ध्यानावस्था में बैठे हुए साधक का पथ-प्रदर्शन करते है। __ऋषि का यहाँ शिष्य को इस बात का संकेत देने का प्रयोजन है कि ध्यानावस्थित शिष्य को निरन्तर मन में ॐ का उच्चारण करते रहना चाहिए और साथ ही ॐ की ध्वनि के प्रारोह, सम तथा अवरोह को अनुभव करना चाहिए । ॐ का उच्चारण करते समय उसे इस के 'अ', 'उ' और 'म्' भाग पर क्रमशः अपनी 'जाग्रत', 'स्वप्न' तथा 'सुषुप्त' अवस्थाओं का आरोप करना चाहिए । इसके बाद यह आवश्यक है कि वह 'अ', 'उ' और 'म्' का एक दूसरे में इस प्रकार समावेश करे । 'अ' को 'उ' और 'उ' को 'म्' में) जैसे 'जाग्रतावस्था' 'स्वप्नावस्था' में और 'स्वप्नावस्था' 'सुषुप्तावस्था' में सिमिट जाती हैं । दो 'ॐ' की मध्यवर्ती निस्तब्धता के साथ उसे सम्पर्क स्थापित करना चाहिए । यह काम इतना सुगम नहीं है । यह तो सूक्ष्मतम पथ है जिस पर चलना एक आसान बात नहीं है । इस बात को अपनाने के लिए हमें असाधारण तैयारी करनी होगी। इसका हमारे मन तथा बुद्धि से सम्बन्ध है । इस बात को
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