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(६० ) में विहरण करने में निरन्तर व्यस्त रहते हैं और इस तरह भटकते हुए हम अपनी आशानों, योजनाओं तथा उत्कण्ठानों की तुष्टि के लिए लालायित
रहते हैं।
जब हम दो बार ॐ का उच्चारण करते हुए मध्यवर्ती निस्तब्धता में व्याप्त होने का प्रयत्न करते हैं तो हमारा मन एवं बुद्धि दोनों स्थिर तथा कुशाग्र हो जाते हैं। इस तरह ध्यानावस्था में हम शनैः शनैः कालातीत होते हैं ताकि उच्चस्तर को प्राप्त करते हुए हम 'अनादि देव' में ही समा जाएँ । यही हमारा संकल्प तथा ध्येय है जिसे, यदि हम अाज न भी प्राप्त कर सके, कभी न कभी अवश्य करेंगे और यह उस समय होगा जब मृत्यु, नश्वरता, शोक और निराशा के हमारे बन्धन कट जाएँ। इतना होने पर हम अपने परिपूर्ण, सर्वज्ञ तथा सर्व-व्यापक स्वरूप से साक्षात्कार कर सकते हैं । यह ऐसी स्थिति है जहाँ शोक, क्लेश आदि का प्रवेश असंभव है ।
यहाँ माण्डूक्योपनिषद् समाप्त होता है । शेष भाग में श्री गौड़पाद की कारिका दो गयी है जिसमें उपनिषदों की प्रभावशाली किन्तु संक्षिप्त उक्तियों के गूढ़ तत्त्व और अन्तनिहित सिद्धान्तों का रहस्योदघाटन किया गया है । इस वेदानाचार्य ने प्रस्तुत उपनिषद् का सार निज असामान्य बुद्धि-कुशलता से दिया है अर्थात् 'भाण्डूक्य' के १२ मंत्रों की व्याख्या १२ लघु खण्डों में की है। ज्यों ज्यों हम इनका विस्तृत वर्णन करेंगे त्यों त्यों हमें पता चलेगा कि श्री गौड़पाद ने किस प्रकार पाठक की अमूल्य सहायता की है । 'माण्डूक्य' के गूढ़ रहस्यों का हमें कितना अधूरा ज्ञान होता यदि इस प्रकण्ड विद्वान् ने 'कारिका' द्वारा इनको भली-भांति समझाया न होता । इस विषम मार्ग पर 'कारिका' ही हमारा यथार्थ पथ-प्रदर्शन करती है ।
ओंकारं पादशो विद्यात् पादामात्रा न संशयः ।
ओंकारं पादशो ज्ञात्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥२४॥ 'ॐ' को इसके हर पाद द्वारा जाना जाए । निस्सन्देह ये पाद इस की मात्राओं के अनुरूप हैं । इस तरह ॐ के पूर्ण रहस्य
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