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( १२ )
भाने वाले मंत्रों में समझाया जायेगा । अभी तो हमें यह बात स्मरण रखनी चाहिए कि इस भीतरी निस्तब्धता को अनुभव करते समय शिष्य अपने मन में दूसरी विचार-धारा न आने दे । उसे तो इस निस्तब्धता के अबाध प्रवाह में डुबकी लगा कर वहाँ अधिक से अधिक समय तक स्थिर रहने का प्रयत्न करना चाहिए | वह अपने मन में किसी प्रकार के ऐसे विचार न आने दे जो उसके प्राचीन संस्कारों के विषमय कीचड़ से उत्पन्न होते हैं । इस उपचेतन शक्ति को दबा दीजिए । अपने क्रियमाण मन को निश्चल एवं स्थिर रखिए और किसी अन्य विचार को पास न आने दीजिए ।
युञ्जीत प्रणवेचेतः प्रणवो ब्रह्म निर्भयं ।
प्रणवे नित्ययुक्तस्य न भयं विद्यते क्वचित् ॥ २५॥
मन को ॐ की ध्वनि में निमग्न करें और इस ( मन ) को ॐ की ध्वनि में लिप्त करें । ॐ ही निर्भय 'ब्रह्म' है । जो ( साधक ) सदा ॐ से तादात्म्य करता है उसे किसी प्रकार का भय नहीं होता ।
प्रारम्भिक व्याख्यानों में यह बताया जा चुका है कि आध्यात्मिक साधन में प्रयत्नशील होना विचारों की उत्पत्ति को कम करना और मन के विचारप्रवाह को नियमित तथा नियंत्रित करना है । इस तरह जब मन अनन्य भाव से ॐ का निरन्तर जप तथा अनुभव करता रहेगा और साथ ही विजातीय विचार-धारा का प्रवाह रुक जायेगा तब यह ( मन ) एकाग्रता प्राप्त कर के ॐ की तरंगों में लीन हो जायेगा ।
जिस वेग से कोई कामना हमारे मन में उठती है उसी अनुपात से हम उसका अनुभव करते हैं । कल्पना कीजिए कि एक विशेष विचार हमें एक सैकण्ड में बीस हजार बार श्राता है और दूसरा उतने ही समय में दस हज़ार बार । उस अवस्था में पहले विचार की अनुभूति दूसरे विचार की अपेक्षा द्विगुण मात्रा में होगी । इस तरह हमें पता चलता है कि संसार भर के सभी अनुभवों में, जिनका हमें ज्ञान है, पूर्णता तभी आ
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