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सूक्ष्म शरीर से सम्पर्क स्थापित करती है तो इस चेतना को भीतरी पदार्थों का अनुभव करने के कारण 'स्वप्न-द्रष्टा' कहते हैं। जिस समय यह उपरोक्त वास्तविकता के प्रति भ्रम पैदा करने वाली अवस्थाओं से भी सिमिट कर इनके उत्पत्ति-क्षेत्र में प्रवेश करती है तो इसे 'सुषुप्त' कहा जाता है । अविद्या से प्रोत-प्रोत इस अवस्था में हमें तीसरी स्थिति का अनुभव होता है जिसमें हम प्रतिदिन विहरण करते रहते हैं ।
अब हमें यह बताया जाता है कि 'विश्व', 'तेजस' और 'प्राज्ञ' वस्तुतः परम-तत्त्व में आरोप मात्र हैं । इस चतुर्थ अवस्था को 'तुरीय' कहा जाता है जो अनादि, अजर, सर्वविद् और सब प्रकार से 'सुखमय' है ।।
ध्यान की क्रिया-विधि, जो अब तक समझाथी जा चुकी है, का उद्देश्य ॐ के तीन अक्षरों में 'विश्व', 'तेजस' तथा 'प्राज्ञ' के हमारे व्यक्तित्व का आरोप करना है। अब ऋषि द्वारा ॐ के अमात्र भाग के इच्छित ध्येय के सम्बन्ध में, जो आत्मा का अनुरूप है, हमें संकेत दिया जा रहा है ।
यह ॐ का अविच्छिन्न भाग है और इसे ॐ के दो उच्चारणों की मध्यवर्ती निस्तब्धता में अनुभव किया जाता है । इसे हम ठीक तरह से समझ नहीं पाते क्योंकि उस समय हमारी कोई इन्द्रिय क्रियमाण नहीं होती और हम पर इसकी किसी प्रकार की छाप नहीं पड़ती। 'अव्यवहार्य' शब्द से हमें यह पता चलता है कि अमात्र ॐ मन द्वारा ग्राह्य नहीं। यदि यह निस्तब्धता हमारे इन्द्रिय-मन से परे है तो इसका यह अभिप्राय है कि उस अवस्था में इनकी क्रिया समाप्त हो जाती है । स्वभावतः यह अवस्था पूर्ण सुखमयी है क्योंकि संसार के विविध विक्षेप उस अस्थायी अनेकता के कारण होते हैं । यह
मारी इस मिथ्या भावना से अनुभव में आती है कि इनके उपभोग से हमें नित्य तथा शाश्वत सन्तोष प्राप्त होगा; किन्तु हमें इसकी प्राप्ति नहीं हो पाती जिसके फल-स्वरूप हम भयभीत, आतंकित तथा असन्तुष्ट रहते हैं।
महानाचार्य ने हमें यह परामर्श दिया है कि अमात्र ॐ को 'तुरीय' के अनुभव के सदृश समझा जाय । शिष्यों से यह कहा गया है कि इस विधि
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