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( ८७ ) से साधक को इस नाशमान संसार के किसी विशेष पदार्थ की प्राप्ति नहीं होती और न ही कोई लाभ होता है; किन्तु इससे वह परमोच्च अविनाशी तस्व का आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करता है । इसे नीचे दिये मन्त्र में वर्णन किया गया है।
अमात्रश्चतुर्थोव्यवहार्यः प्रपञ्चोपशमः शिवोऽद्वैत एवमोंकार आत्मैव संविशत्यात्मनात्मानं य एवं वेद ॥१२॥
जो अखंड, अनुच्चारणीय, अचिन्त्य, इन्द्रियों से परे, सभी प्रपञ्चों को शान्त करने वाला, कल्याणकारी और अद्वैत ॐ है वह 'चतुर्थ' है । यह वस्तुत: 'प्रात्मा के अनुरूप है । जो इसे अनुभव करता है वह परमात्म-तत्त्व में इस प्रकार समा जाता है जैसे समष्टि में व्यष्टि । ____ अभी तक तो उपनिषद् में ॐ की तीन मात्राओं की व्याख्या की गयी है और हमें यह सविस्तार बताया गया है कि उच्चारण तथा ध्यान करते समय इनमें किस प्रकार प्रारोप किया जाना चाहिए; किन्तु ॐ की तीन मात्राओं का उच्चारण प्रारम्भ करने तक कुछ शान्ति के ऐसे क्षण प्राते हैं जिनकी पोर उन व्यक्तियों का सहसा ध्यान नहीं होता जो इस पवित्र मन्त्र का उच्चारण बिना सोचे समझे करते हैं। बार बार ॐ का उच्चारण करते हुए दो उच्चारणों के बीच निस्तब्धता का होना अनिवार्य है, चाहे हमें इसका ज्ञान भले ही न हो । यहाँ ऋषि अपने शिष्यों को इस 'अमात्रा' का रहस्य समझाने का प्रयन कर रहे हैं और वह यह बात स्पष्ट करना चाहते हैं कि 'अनादि-तत्त्व' की इस निस्तब्धता का ध्यान करने से साधक को परम सुख की प्राप्ति किस प्रकार होती है।
इससे पहले हम बता चुके हैं कि हमारी चेतना स्थूल शरीर से सम्बन्ध जोड़ कर पदार्थ मय संसार का अनुभव करती है; इस अवस्था में इसे 'जाग्रत' कहा जाता है । जब यह स्थूल शरीर तथा बाह्य संसार से ध्यान हटा कर
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