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अवस्थाएँ समा जाती हैं। जब हम गहरी निद्रा से जाग उठते हैं तो इसमें से 'जाग्रत' एवं 'स्वप्न' का प्रादुर्भाव होता दिखायी देता है । इसी समानता को दिखाने के लिए इन दोनों की 'स' गिलास से तुलना की गयी थी ।
यह बात स्पष्ट है कि ॐ की अन्तिम मात्रा 'म्' तथा सुषुप्तावस्था से पहले-पहल अनेकता और विषमता का अनुभव होता है और बाद में इन दोनों में व्याप्त होकर एक ही स्वरूप को धारण कर लेते हैं ।
जो मनुष्य इस समानता को जान लेता है वह सभी रहस्यों को जान कर 'विवेक' से युक्त हो जाता है । इस तरह वह अपने भीतर और बाहिर सब पदार्थों एवं तत्त्वों को जान कर उनका मूल्य आँक लेता है । साथ ही अपने भीतर के अनुभव प्राप्त करके वह सब विषम समस्यानों को हल कर लेने की योग्यता रखता है । उसके लिए कोई वस्तु जाने बिना नहीं रहती और न ही वह किसी स्थिति को दुर्गम पाता है ।
कारिका विश्वस्यात्वविवक्षायामादिसामान्यमुत्कटम् ।
मात्रा संप्रतिपत्तौस्यादाप्ति सामान्यमेव च ॥ १६ ॥
जब 'विश्व' तथा 'अ' मात्रा में समानता बतायी जाय तो इन दोनों के 'पहले' आने और सर्व व्यापकत्व के भाव को ध्यान में रखना चाहिए ।
अब श्री गौड़पाद हमें उपनिषदों के उस भाग का भावार्थं समझाते हैं जिसमें ऋषि द्वारा ॐ का ध्यान करने की क्रिया-विधि निर्धारित की गयी है ।
उपनिषद् के इन मंत्रों की संक्षिप्त व्याख्या करने का प्रयास करते हुए श्री गौड़पाद ने इसमें कुछ परिवर्तन कर दिया है - ऐसा हमें प्रतीत होता है । उपनिषद् के नवें मन्त्र में 'प्र' तथा जाग्रतावस्था में समानता दिखाते हुए ऋषि
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