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( ७६ ) प्रस्तुत मंत्र के पूर्वार्द्ध में 'अनुकूल-तर्क' विधि को अपनाया गया है जिसका भारतीय दार्शनिकों द्वारा उपयोग किया जाता है । इस पंक्ति में वस्तुतः यह कहा गया है कि “संसार का अस्तित्व नहीं है मौर यदि है तो वह भी दूर हो जायेगा । यह लुप्त नहीं होता; इसलिए इसकी सत्ता नहीं है ।"
विविध पदार्थमय संसार की यदि सत्ता है तो वह निश्चय से अदृश्य हो जायेगी; किन्तु यह है ही नहीं क्योंकि द्वैतभाव मिथ्या है । यदि वास्तविक . सत्ता है तो वह केवल "अद्वैत-तत्त्व" की है।
विकलो विनिवर्तेत परिपतो यदि केनचित् ।
उपदेशादयं वादो ज्ञाते द्वैतं न विद्यते ॥१८॥
(इस सम्बन्ध में) यदि किसी ने विविध संकल्प-विकल्प किये हों तो वे दूर हो सकते हैं । यह व्याख्या तो उपदेश देने के लिए की जाती है । इसमें द्वैतभाव के विषय में जो कुछ कहा गया है वह 'परम-सत्य' का ज्ञान होने पर जाता रहेगा ।
पिछले मंत्र पर जो वाद-विवाद हुआ है उसे सुन कर इस सत्संग के कोई एक सज्जन यह आपत्ति उठा सकते हैं—“महाराज ! जैसा आपने कहा है यदि दृष्ट-संसार मिथ्या तथा माया-स्वरूप है तो क्या हम गुरु, शिष्य और इस ग्रन्थ अर्थात् सब को 'मिथ्या' नहीं कह सकते हैं ?" __वेदान्त वाले सदा एक ही उत्तर देंगे । सत्य-सनातन का ज्ञान होने पर प्राचार्य, शिष्य, धर्म-ग्रन्थ आदि के विषय में मिथ्यात्व की भावना अवश्यमेव हो जायेगी । 'आत्मा' में गुरु, शिष्य और शास्त्रों का अस्तित्व नहीं है । इन तीनों की धारणा इस उद्देश्य से की जाती है कि इन उपकरणों की सहायता से 'परम-पद' की प्राप्ति करके उसे अनुभव किया जाय। जिस समय साधक को इस तत्त्व का पूर्ण अनुभव हो जाता है उसी क्षण सभी विविधता की इतिश्री हो जाती है । आत्म-तत्त्व (कर्ता) में किसी वस्तु (कर्म) के लिए कोई स्थान नहीं है।
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