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( ७५ )
'जीवात्मा' के लिए ही संसार का अस्तित्व है और इसका अहंभाव नष्ट हो जाने पर इन मिथ्या धारणाओं एवं सीमित शक्तियों का अन्त हो जायेगा । इससे पहले यह बताया जा चुका है कि इस मिथ्याभिमान का निर्माण किस प्रकार होता है और हमें इस माया-रूपी पृथकत्व का आभास कैसे होने लगता है । जब हमें इस वास्तविक तत्त्व का ज्ञान हो जाता है तब हमें चेतना की तुरीयावस्था का ज्ञान होता है । उस समय 'सत्य' के प्रति न तो कोई मिथ्या ज्ञान होता है और न ही प्रविद्या |
प्रपञ्चो यदि विद्येत निवर्तेत न संशयः । मायामात्रमिदं द्वैतमद्वैतं परमार्थतः ॥ १७॥
यदि दृष्ट-प्रपञ्च ( अनेकता ) वास्तविक होता तब यह अवश्य अदृश्य हो जाता । दृष्टिगोचर होने वाला यह द्वैत केवल भ्रान्ति या माया है । प्रत ही परम सत्य है ।
पिछले मंत्र में हमें यह बताया गया है कि जब अनेकता वाला 'द्वैत' लुप्त होता है तब हमारे अनुभव का एक मात्र विषय अद्वैत रह जाता है । यहाँ इस बात को समझाया गया है। यदि यह बहु-रूप संसार वास्तविक होता तो ऐसी शंका न्याय संगत होती । यह सब मिथ्या है, जैसे रज्जु में सर्प-दर्शन । इसलिए इसका अस्तित्व नहीं । जिस समय हम इस परम तत्त्व को समझ लेते हैं उस समय सब मिथ्या पदार्थ प्रदृष्ट हो जाते हैं ।
यह उन व्यक्तियों के लिए उपयुक्त उत्तर है जो इस अनेकता वाले संसार में ही विश्वास बनाये रखते हैं और कहते हैं कि जिस 'अद्वैत' को वे देख नहीं पाते उसकी सत्ता में कैसे विश्वास किया जा सकता है ? श्री शंकराचार्य ने अपने भाष्य में इस मंत्र की 'रज्जु में सर्प-दर्शन' का उदाहरण दे कर व्याख्या की है । माया से मुग्ध होने पर हमें सर्प, न कि रस्सी, दिखायी देती है किन्तु जिस क्षण हम इस भ्रान्ति पूर्ण सर्प के परोक्ष पदार्थ ( रज्जु) को जान लेते हैं तभी हमें उस प्रद्वैत-रूपी रस्सी के दर्शन हो जाते हैं । यही बात इस स्थूल संसार के विषय में घटित होती है ।
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