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अब तक हमें ॐ के रहस्य पर ही विचार करने का अवसर मिला है । अब ॐ की तीन मात्राओं पर विचार करते हुए हम इस का अर्थ जानने का प्रयत्न करेंगे।
यहाँ उपनिषद द्वारा हमें बताया जा रहा है कि ये तीन मात्राएँ ही तीन पद हैं।
जागरितस्थानो वैश्वानरोऽकारः प्रथमा मात्राऽऽप्तेरादिमत्वाद्वाप्नोति ह वै सर्वान्कामानादिश्च भवति स एव वेद ॥६॥
(ॐ की) 'अ' मात्रा जाग्रतावस्था के वैश्वानर को प्रकट करती है क्योंकि यह सर्व-व्यापक ॐ का प्रथमाक्षर है । दोनों में यह विशेषता समान रूप से पायी जाती है। जो व्यक्ति इसे जान लेता है उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण होती हैं और वह सर्वशिरोमणि हो जाता है।
हम पहले बता चुके हैं कि जब आत्मा स्थूल शरीर से प्रपना सम्बन्ध जोड़ कर पदार्थमय बाह्य -संसार को देखता है तो इसे जाग्रतावस्था (वैश्वानर) के अनुभव होने लगते हैं। ध्यानावस्था में जाग्रतावस्था के जीवात्मा का ॐ की 'अ' मात्रा में आरोप किया जाता है।।
किसी वस्तु में विशेष अर्थ अथवा भाव का अारोप करना एक गुह्य साधन है जिसे हम 'मूर्ति-पूजा' कहते हैं । एक गोलाकार पत्थर के खण्ड में हम कैलाशपति भगवान शिव की धारणा करते हैं। ऐसे ही क्रॉस में, जो असह्य यातना का सूचक है, ईसाई ईसामसीह के दिव्य रूप की धारणा करते हैं । ज्योंही वे किसी बड़े अथवा छोटे क्रॉस को देखते हैं त्योंही उनमें दिव्य भावना का संचार हो जाता है और उन्हें ऐसा प्रतीत होता है मानो "ईसा' स्वयं उन्हें आशीर्वाद दे रहे हों ।
वेदान्त के विद्यीर्थी के लिए भी, चाहे उसे अमूर्त-तत्त्व (प्रात्मा) का ध्यान धरने के लिए विशेष साधन को अपनाना होता है, पहले-पहल किसी ऐसे पदार्थ अथवा 'लक्ष्य' की आवश्यकता होती है जिसे अपने सामने रखते
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