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'अ' की व्यापकता भी स्वयं-सिद्ध है क्योंकि सब ध्वनियों में 'अ' विद्यमान रहता है। वैश्वानर भी समस्त विश्व में व्याप्त रहता है । इस बात की तुष्टि 'श्रुति' की घोषनामों से होती है क्योंकि कहा गया है कि "वैश्वानर आत्मा का शिर एवं दिव्य स्वर्ग है" इत्यादि । प्रस्तुत उपनिषद् में इस समानता के महत्त्व को दिखाया गया है । शास्त्र कहते हैं कि 'अ' मात्रा से निज जाग्रतावस्था को जिस व्यक्ति ने मिला दिया है उसकी सभी कामनाएँ पूरी हो जाती हैं और वह संसार का शिरोमणि बन जाता है अर्थात् अपने युग में उस की कीत्ति-पताका फहराती है । उपनिषदों में इस ढंग को उन स्थानों पर अपनाया गया है जहाँ वे किसी प्राध्यात्मिक साधन का वर्णन करते हैं ताकि विद्यार्थी को इन आध्यात्मिक साधनों के सक्रिय प्रयोग में प्रोत्साहन मिले क्योंकि इस प्रयास का विशेष माहात्म्य बताया जाता है।
यदि हम इस बात को पक्षपात की भावना से जानने का प्रयत्न करें तो सहसा हम यह समझ बैठेंगे कि साधक को आध्यात्मिक जीवन को उत्साहपूर्वक व्यतीत करने की प्रेरणा देने के लिए प्राचीन ऋषियों ने इस अपरिष्कृत उपाय का उपयोग किया है; किन्तु वर्तमान संसार तथा इसके मनोविज्ञान के विषय में हमें जो कुछ ज्ञान है उसके आधार पर हम निश्चय से कह सकते हैं कि कार्य-विरत संसार में इसी प्रथा द्वारा मनुष्य के व्यक्तित्व को विकसित किया जाता है । मन में नियमित रूप से ॐ का जप करते रहने के साथ यदि मनष्य निज जाग्रतावस्था को भी ध्यान में रखता है तो उसके मन तथा बुद्धि दोनों विकसित होते हैं और इस प्रात्म-विकास के परिणामस्वरूप उसका जाग्रतावस्था का व्यक्तित्व निश्चय रूप से सन्तुलित तथा मनोहारी क्रियाशीलता में परिणत हो जाता है ।
इस बात को समझाने के लिए किसी दर्शनाचार्य की आवश्यकता नहीं कि ऐसे व्यक्तित्व वाला मनुष्य लोलपता एवं स्पर्धा पूर्ण वर्तमान संसार में सर्वांगीन सफलता प्राप्त करता है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है । सामान्य योग्यता वाला कोई प्राणी इस साधन का निष्कपट भाव से सतत उपयोग करके एक उच्चकोटि का बुद्धिमान व्यक्ति बन सकता है । क्रोधी, अयोग्य और असहाय रहते हुए हममें नकारात्मक प्रवृत्तियों का समावेश हो जाता है ।
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